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सर्वदर्शनसंग्रहे
वर्णन है । ये पाँच अंग योग ( चित्तवृत्ति निरोध ) के बाह्य साधन हैं । इनका वर्णन पृथक्पृथक् करें ।
( १ ) यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह को यम कहते हैं । ये सार्वभौम व्रत हैं तथा इन्हें जाति, देश, काल और आचार ( परम्परा ) की सीमा में नहीं बांधा जा सकता । प्राणी मात्र को, कहीं भी, कभी भी किसी के लिए भी मैं नहीं मारूंगायही सार्वभौम व्रत हुआ । प्राण वियोग के लिए जो व्यापार करें, वह हिंसा है और इसके विरुद्ध अहिंसा होती है । वाणी और मन से वस्तु का यथार्थ निरूपण करना सत्य है । दूसरों के द्रव्यों का हरण नहीं करना अस्तेय है । जननेन्द्रिय का नियंत्रण करना ब्रह्मचर्य है । भोग के साधन के रूप में जो वस्तुएं हों उन्हें स्वीकार न करना अपरिग्रह है ।
( २ ) नियम - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर का प्रणिधान करना ( कर्मार्पण करना ) – ये पाँच नियम हैं । पवित्र रहना शौच है । शरीर या मन से पवित्र रहा जा सकता है । मिट्टी, जल आदि से शरीर की बाह्य शुद्धि होगी तथा पंचगव्य आदि खाने से आन्तरिक शुद्धि | अच्छी-अच्छी भावना करके राग, द्वेषादि मानसिक मलों को धो देना मानस शुचिता है । तृष्णा न होना सन्तोष है । दूसरे नियमों का वर्णन पहले ही कर चुके हैं ।
(३) आसन - जिस रूप में साधक स्थिरता से ( देर तक ) तथा सुखपूर्वक बैठ सके, वही आसन है । पद्मासन, सिद्धासन आदि प्रसिद्ध हैं जिसमें हाथ पैर आदि शारीरिक अवयवों को एक विशेष प्रकार से रखा जाता है । आसन स्थिर हो जाने पर शीत, उष्ण आदि से पीड़ा नहीं होती है ।
( ४ ) प्राणायाम - आसन स्थिर हो जाने पर श्वास ( नासिका के छेदों से वायु का अन्दर जाना ) और प्रश्वास ( वायु का बाहर आना ), दोनों की गति का निरोध कर देना प्रणायाम है । वायु जहाँ है वहीं रह जाय जिससे चित्त भी स्थिर हो जाय । ऐसा चित्त शब्दादि विषयों के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकता । परिणाम यह होगा कि श्रोत्रादि इन्द्रियां भी विषयों से विमुख हो जायेंगी ।
(५) प्रत्याहार - इन्द्रियों का अपने विषयों से विमुख होकर चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार कहलाता है । इन्द्रियों को रोकनेवाला चित्त ही है । चित्त के रुक जाने से ये इन्द्रियाँ भी निरुद्ध हो जाती हैं ।
ये पाँचों उपाय योग के बहिरंग साधन हैं, क्योंकि चित्त को स्थिर करने के बाद क्रमशः समाधि तक पहुँचा जा सकता है । धारणा, ध्यान और समाधि चूंकि समाधि के स्वरूप की निष्पत्ति करते हैं, अतः अन्तरंग साधन कहलाते हैं । इनका वर्णन तृतीय पाद ( विभूतिपाद) में हुआ है । समाधि को ही योग कहते हैं, यह योग-रूपी वृक्ष चित्तरूपी खेत में यम-नियम के द्वारा बीज प्राप्त करता है, आसन-प्राणायाम से अंकुरित होता है,