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पातञ्जल - दर्शनम्
चित्तस्य वृत्तिमनुरुध्य सुसाधनाभि
जवः समाधिमधिगच्छति यन्मतेन ।
योगास्तथा वसुमिता अधियोगशास्त्रं
येनाश्रिता मम पतञ्जलये नमोऽस्मै ॥ - ऋषिः ( १. योगसूत्र की विषय-वस्तु )
साम्प्रतं सेश्वरसांख्यप्रवर्तकपतञ्जलिप्रभृतिमुनिमतमनुवर्तमानानां मतमुपन्यस्यते । तत्र सांख्यप्रवचनापरनामधेयं योगशास्त्रं पतञ्जलिप्रणीतं पादचतुष्टयात्मकम् । तत्र प्रथमे पादे 'अथ योगानुशासनम् ' ( यो० सू० ११) इति योगशास्त्रप्रतिज्ञां विधाय 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' ( यो० सू० १२ ) इत्याविना योगलक्षणमभिधाय समाधि सप्रपश्वं निरदिक्ष द्भगवान्पतञ्जलिः ।
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अब सेश्वर सांख्य-दर्शन के प्रवर्तक पतञ्जलि आदि ( = हिरण्यगर्भ, याज्ञवल्क्य आदि ) मुनियों के मत का अनुसरण करनेवाले लोगों के सिद्धान्तों की व्याख्या की जाती है । [ कपिल के द्वारा प्रतिपादित सांख्य दर्शन को निरीश्वरसांख्य कहा गया है, क्योंकि वे अपने दर्शन में ईश्वर नामक कोई पदार्थ स्वीकार नहीं करते। योगशास्त्र में सभी विषयों पर सांख्य से सहमत होते हुए भी ईश्वर के विषय में विमति है । ये लोग पुरुष - विशेष के रूप में ईश्वर को भी स्वीकार करते हैं । इसीलिए सेश्वर सांख्य के नाम से है । सांख्य और योग अन्य पक्षों पर सहमत होने से समानतन्त्र भी दूसरे के पूरक हैं । सिद्धान्तों की विवेचना सांख्य में हुई है जब कि व्यावहारिक पक्ष का विचार योग में हुआ है । पतञ्जलि ही इसके उपलब्ध प्रवर्तक माने जाते हैं, क्योंकि इनका योगसूत्र बहुत प्रसिद्ध है । इनके पूर्व भी कुछ योगी हो गये थे किन्तु उनके ग्रन्थों का प्रचार न होने से माधवाचार्य उन्हें 'प्रभूति' शब्द के अन्तर्गत रखते हैं । ]
यह दर्शन प्रसिद्ध
कहलाते हैं - वे एक
तो योगशास्त्र में, जिसका दूसरा नाम 'सांख्यप्रवचन' भी है तथा जिसकी रचना पतंजलि ने की है, चार पाद ( समाधि, साधन, विभूति, केवल्य ) हैं । उनमें प्रथम पाद में 'अथ योगानुशासनम् ' ( अब योग का विश्लेषण होगा, यो० सू० १1१ ) इस सूत्र में योगशास्त्र की प्रतिज्ञा देकर भगवान् पतञ्जलि ने 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ( चित्त की वृत्तियों को रोक देना ही योग है - यो० सू० ११२ ) - इस सूत्र के द्वारा योग का लक्षण बतला