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सर्वदर्शनसंग्रहे
११. पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पवन्धवदुभयोरपि सम्बन्धस्तत्कृतः सर्गः ॥ ( सां० का ० २१ ) इति । जैसे कोई अन्धा और लंगड़ा राह में किसी दल के साथ जा रहे थे। किसी देवी उपद्रव से दल से उनका साथ छूट गया । वे बेचारे डर के मारे इधर-उधर घूम रहे थे कि देवयोग से उनका मिलन आपस में ही हो गया । अब अन्धे ने लंगड़े को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया । तब लंगड़े के दिखलाये रास्ते पर चलते-चलते अन्धा अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँच गया । लंगड़ा भी कन्धे पर चढ़े - ही चढ़े [ आसानी से वहाँ पहुँच गया ] । उस प्रकार परस्पर अपेक्षा रखनेवाले प्रधान और पुरुष के कारण सृष्टि ( सर्ग ) चलती है । जैसा कि कहा है - [ प्रधान अपने कर्मों को ] दिखलाने के लिए पुरुष की अपेक्षा रखता है और उसी तरह [ पुरुष अपने ] कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रधान की अपेक्षा करता है - इस तरह दोनों का सम्बन्ध पंगु और अन्ध के समान है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है ।' [ पंगु को गतिशक्ति नहीं है वह अपने स्थान पर जाने के लिए गतिमान् व्यक्ति की अपेक्षा रखता है तो अन्धा मिलता है । अन्धा है तो उसे दृष्टिमान् लँगड़े की सहायता मिलती है । दोनों का है ! यहाँ पुरुष निष्क्रिय होने के कारण पंगु के समान है, प्रधान अचेतन होने के कारण अन्धे की तरह है । लंगड़े के सम्बन्ध से अन्धा मार्ग में चल सम्बन्ध से प्रधान प्रवृत्त होता है । अन्धे के सम्बन्ध से पंगु अभीष्ट स्थान पर पहुँचता है वैसे ही प्रधान के सम्बन्ध से पुरुष विवेकज्ञान के द्वारा मोक्ष पाता है । ] ( सां० का० २१ ) ।
उधर दृष्टिशक्ति से रहित परस्पर संयोग हो जाता
पड़ता है, वैसे ही पुरुष के
विशेष - सांख्य के प्रकृति - पुरुष -सम्बन्ध में जो अन्धा-लंगड़ा की उपमा दी गई है। उसकी घोर आलोचना हुई है । प्रायः लोगों ने संकेत किया है कि अन्धा और लंगड़ा दोनों ही चेतन हैं, आपस में साथ चलने के लिए समझौता कर सकते हैं । यह दूसरी बात है कि वे एक-एक इन्द्रिय से रहित हैं । प्रकृति और पुरुष में कोई धर्म समान नहीं, एक जड़ है, दूसरा चेतन । दोनों में समझौता कैसे हो सकता है ?
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( १२. प्रकृति की निवृत्ति - प्रलय )
ननु पुरुषार्थनिबन्धना भवतु प्रकृतेः प्रवृत्तिः । निवृत्तिस्तु कथमुपपद्यत इति चेत् — उच्यते । यथा भर्त्रा दृष्टदोषा स्वैरिणी पुनर्भर्तारं नोपैति, यथा वा कृतप्रयोजना नर्तकी निवर्तते तथा प्रकृतिरपि । यथोक्तम्
१२. रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥
( सा० का० ५९ ) इति ।