________________
५५०
सर्वदर्शनसंग्रहे१०. वत्सविवद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरजस्य । पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥
(सां० का० ५७ ) इति । यही देखते भी हैं कि अचेतन पदार्थ चेतन की सहायता लिये ही बिना मनुष्यों को अर्थसिद्धि के लिए प्रवृत्त होता है । जैसे बच्चे के पालन-पोषण के लिए अचेतन दूध प्रवृत्त होता है ( मां के स्तन में चला आता है ) और जैसे अचेतन जल संसार के उपकार के लिए प्रवृत्त होता है उसी प्रकार प्रकृति अचेतन होने पर भी पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होगी, [ इसमें आश्चर्य क्यों करते हैं ? ] यह कहा भी है-'जैसे बच्चे के पालन-पोषण के लिए ( के प्रयोजन से ) अज्ञ अर्थात् अचेतन दूध की भी प्रवृत्ति ( क्रिया ) देखी जाती है उसी प्रकार पुरुष की मुक्ति के लिए प्रधान या प्रकृति की प्रवृत्ति होती है।' (सां० का० ५७ ) ।
विशेष—यहाँ लोग पूछ सकते हैं कि प्रधान की प्रवृत्ति से पुरुष का मोक्ष कैसे होता है ? मोक्ष का अर्थ है दुःख की निवृत्ति । दुःख की निवृत्ति तभी हो सकती है जब पुरुष
और प्रकृति के भेद का ज्ञान हो जाय । प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण दुर्गम है, इसलिए पुरुष को उससे अपने भेद का ज्ञान प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। जब प्रकृति कार्योत्पादन में लगती है तब उसके बड़े-बड़े भौतिक कार्य स्थूल रूप से दिखलाई पड़ते हैं । पुरुष आसानी से उन पदार्थों से अपना भेद कर लेता है। फिर वह उन स्थूल कार्यों के कारण सूक्ष्म तत्त्वों से भी भेद कर लेता है । अन्त में सूक्ष्मतम प्रकृति से भी पार्थक्य का ज्ञान उसे हो जाता है। जैसे अरुन्धती नामक सूक्ष्म तारे को दिखलाने के लिए अन्य तारों को दिखलाते-दिखलाते ध्यान केन्द्रित हो जाने पर अरुन्धती को दिखला देते हैं वैसे ही पुरुष को भी प्रकृति का ज्ञान होता है।
(१० क. परमेश्वर प्रवर्तक नहीं है ) __ यस्तु 'परमेश्वरः करुणया प्रवर्तकः' इति परमेश्वरास्तित्ववादिनां डिण्डिमः स गर्भस्रावेण गतः । विकल्पानुपपत्तेः। स किं सृष्टेः प्राक्प्रवर्तते सृष्ट्युत्तरकालं वा ? आये शरीराद्यभावेन दुःखानुत्पत्तौ जीवानां दुःखप्रहाणेच्छानुपपत्तिः। द्वितीये परस्पराश्रयप्रसङ्गः। करुणया सृष्टिः सृष्टया च कारुण्यमिति ।
परमेश्वर को सत्ता माननेवाले लोग ( नैयायिक आदि ) जो यह ढिंढोरा पीटते हैं कि परमेश्वर दया के कारण संसार की [ रचना करने में ] प्रवृत्त होता है वह तो गर्भपात के समान नष्ट हो गया। कारण यह है कि इस दशा में इस पर उठाये गये विकल्पों का खण्डन हो जाता है। क्या वह सृष्टि के पहले प्रवृत्त होता है या सृष्टि के बाद ? पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि शरीर आदि के अभाव में दुःख की उत्पत्ति नहीं होगी, [ दुःख शरीर में ही होता है, जीवों का उस समय शरीर ही नहीं है ] अतः जीवों में दुःख