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सर्वदर्शनसंग्रहे
के ] भेद पर आधारित व्यवहार की विलक्षणता मालूम पड़ती है। [ अभिप्राय यह है कि. परमसत्ता ब्रह्म ही शब्दों का अर्थ है पर शब्दों के अर्थ को लेकर भेद क्यों है ? चूंकि सत्ता के सम्बन्धी घट, पट आदि द्रव्यों की घटसत्ता, पटसत्ता आदि है और इन वैयक्तिक सत्ताओं के रूप में घटत्वजाति, पटत्वजाति आदि जातियों की सत्ता है इसलिए परमसत्ता ब्रह्म के विवर्तरूप इन सत्ताओं के चलते शब्दार्थ में भेद पड़ता है। स्फटिक पर नाना प्रकार के रंग पड़ते हैं। उसी तरह सम्बन्धियों के भेद से सत्ता पर अनेक अर्थों का आरोपण होता है।]
ऐसा ही आप्त (प्रामाणिक ) वाक्य है-'जैसे स्फटिक स्वच्छ द्रव्य ही है, पृथक्-पृथक् नीले, लाल, पीले रंगों के पड़ने से उसके वर्ण को प्राप्त कर लेता है, [ वैसे ही सत्ता भी विभिन्न सम्बन्धियों के भेद से विभिन्न अर्थों को धारण कर लेती है। ]' तथा हरिणाप्युक्तम्१३. सम्बन्धिभेदात्सत्तव भिद्यमाना गवादिषु । जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः॥
(वाक्य० ३।१।३३ )। १४. तां प्रातिपदिकार्थ च धात्वर्थ च प्रचक्षते । सा नित्या सा महानात्मा तामाहुस्त्वतलादयः॥
( वाक्यप० ३३१॥३४ ) इति । वही भर्तृहरि ने भी कहा है-'सम्बन्धी ( घट, पट आदि ) के भेद से सत्ता ( परम सत्ता ) ही गो-आदि के रूप में भिन्न होकर जाति कहलाती है उसी में सभी शब्दों की व्यवस्था होती है ॥ १३ ॥ ___ पदार्थों में स्थित संविद्रूपी सत्ता नित्य है, वही महान् आत्मा ( ब्रह्म ) है, त्व, तल् आदि भाव-प्रत्यय उसी का पोषण करते हैं ।। १४ ॥'
विशेष-महासत्ता नाम की एक ही जाति है, वही ब्रह्म है, गोत्व, अश्वत्वादि उसी के विवर्त हैं । आश्रयरूपी सम्बन्धी का भेद पड़ने से यह महासत्ता ही गोत्व आदि जाति के रूप में आती है । अभाव को भी महासत्ता से सम्बद्ध मानकर पदार्थ कहते हैं अतः महासत्ता को प्रातिपादिकार्थ के रूप में भी गृहीत करते हैं । धातु भी क्रियारूपी व्यक्तियों में समवेत होनेवाली महासत्ता की अभिव्यक्ति करता है । ऐसी अवस्था में महासत्ता में क्रियारूपी उपाधियों के कारण अनेकता आती है । ( देखिये, वाक्यपदीय का सम्बद्ध स्थल )। माधवाचार्य इसकी व्याख्या आगे करते हैं।
आश्रयभूतैः सम्बन्धिभिभिद्यमाना कल्पितभेदा गवाश्वादिषु सत्त्व महासामान्यमेव जातिः । गोत्वादिकमपरं सामान्यं परमार्थतस्ततो भिन्नं न भवति । गोसत्तव गोत्वं, नापरमन्वयि प्रतिभासते । एवमश्वसत्ताऽश्वत्वमि