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सांख्य दर्शनम्
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( ४ ) सांख्य के अनुसार सत् कारण से ही कार्य उत्पन्न होता है और वह कार्य भी सत् ही रहता है - कारण - व्यापार के पूर्व अव्यक्त रूप में विद्यमान कार्य ही कारण - व्यापार के पश्चात् व्यक्त रूप में उत्पन्न होता है । दूध से उत्पन्न होनेवाला दधि कारणव्यापार के पूर्व भी दूध में अव्यक्त रूप में विद्यमान है । प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले महत् अहंकार आदि तत्त्व उस ( प्रकृति ) में अव्यक्त रूप में रहते हैं । इस मत को सत्कार्यवाद कहते हैं । इसमें कारण से कार्य की उत्पत्ति का यही अर्थ है कि कोई अव्यक्त पदार्थ व्यक्त हो जाता है । स्मरणीय है कि सांख्य और न्याय के अनुसार कार्य एक तथ्य ( Real ) है जब कि वेदान्त में कार्य मिथ्या है, विवर्त है ।
अब सांख्य के अतिरिक्त अन्य मतों के खण्डन का उपक्रम करते हुए सत्कार्यवाद की सिद्धि को जायगी और उसके लिए विभिन्न तर्क दिये जायेंगे ।
( ७ क. कार्य-कारण-भाव के मतों का खण्डन )
तत्रासतः सज्जायत इति न प्रामाणिकः पक्षः । असतो निरुपाख्यस्य शशविषाणवत्कारणत्वानुपपत्तेः । तुच्छातुच्छयोस्तादात्म्यानुपपत्तिश्च ।
उन मतों में 'असत् से सत् उत्पन्न होता है' यह पक्ष प्रामाणिक नहीं है । असत् का वर्णन नहीं हो सकता, यह खरहे की सींग की तरह [ सत्ताहीन ] है, उसे कारण ही नहीं बताया जा सकता । दूसरे, तुच्छ ( स्वरूपहीन ) और अतुच्छ ( स्वरूपयुक्त ) पदार्थों में तादात्म्य-सम्बन्ध भी तो नहीं होता है । [ तात्पर्य यह है कि एक तो असत् पदार्थ कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिसको सत्ता ही नहीं, वह कार्योत्पादन क्या करेगा ? दूसरे, सत् और असत् का सम्बन्ध होना असम्भव है क्योंकि असत् पदार्थ है पदार्थ का कुछ स्वरूप होता है । पूर्वक्षण में होनेवाला घटाभाव ही घट का उपादान कारण है - ऐसा बौद्ध लोग कहते हैं | अभाव या के कारण अपने परवर्ती भाव या सत् के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं रख सकता । जब तादात्म्य ही नहीं रहेगा तो उपादान और उपादेय का सम्बन्ध नहीं हो सकता । इसलिए बौद्धों का सिद्धान्त अमान्य है । ]
स्वरूपहीन और सत्
उत्तर क्षण में होनेवाले
असत् स्वरूपहीन होने
नापि सतोऽसज्जायते । कारकव्यापारात्प्रागसतः शशविषाणवत्सत्तासम्बन्धलक्षणोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न हि नीलं निपुणतमेनापि पीतं कर्तुं पार्यते । ननु सत्त्वासत्त्वे घटस्य धर्माविति चेत् — तदचारु । असति धर्मिणि तद्धर्म इति व्यपदेशानुपपत्त्या धर्मिणः सत्वापत्तेः ॥
सत् से असत् की उत्पत्ति का [ न्याय - सिद्धान्त ] भी प्रामाणिक नहीं ही है । कार्य को उत्पन्न करनेवाले पदार्थ की क्रिया ( कारक - व्यापार ) के पहले जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसकी उत्पत्ति खरहे की सींग की तरह असम्भव है क्योंकि उत्पत्ति का अर्थ है सत्ता से सम्बन्ध रहना । [ दो सत्तायुक्त पदार्थों का ही सम्बन्ध हो सकता है और सत्ता के साथ