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सांख्य दर्शनम्
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आप्तवचन का अर्थ है आप्त ( प्रकृष्ट या उचित ) श्रुति अर्थात् वाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थज्ञान | यह वाक्यार्थ ज्ञान जो स्वतन्त्र रूप से प्रमाण होता है, अपौरुषेय बेदवाक्यों' से उत्पन्न होने से भ्रम, प्रमादादि पुरुषदोषों से रहित होने के कारण युक्त है । वेद के वाक्य तो प्रमाण हैं ही, वेदमूलक स्मृति, इतिहास, पुराण के वाक्यों से उत्पन्न ज्ञान भी युक्त होता है। 'आप्त' शब्द से युक्त या उचित श्रुतियों ( आगमों ) का ही बोध होता है । नहीं तो जैन, बौद्ध आदि के विचार जो आगम जैसे लगते हैं वे भी प्रमाण ही
हो जायेंगे ।
वाचस्पति ने इसके बाद उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव तथा ऐतिह्य प्रमाणों को ( जो विभिन्न दर्शनों में स्वीकृत है ) इन्हीं के अन्दर सिद्ध किया है । कोई प्रत्यक्ष में, कोई अनुमान में और कोई आगम में अन्तर्भूत हो जाते हैं । स्मरणीय है कि छहों दर्शनों पर टीका करनेवाले आचार्य बिल्कुल तटस्थ होकर इसकी विवेचना करते हैं । इसके बाद की कारिका में (छठी कारिका में ) बतलाया गया है कि सामान्यतोदृष्ट अनुमान से अतीन्द्रिय पदार्थों की सिद्धि होती है । किन्तु जो पदार्थ परोक्ष हैं और इससे भी सिद्ध न हो सकें तब उनकी सिद्धि आगम-प्रमाण से होती है । बात यह है कि बहुत दूर होने या समीप होने से, इन्द्रियों के घात या मन की अस्थिरता होने से, सूक्ष्मता के कारण या बीच में रुकावट पड़ जाने से, किसी वस्तु से अभिभूत ( दब ) हो जाने से या समान वस्तु में मिल जाने से कोई पदार्थ दिखलाई नहीं पड़ता ( कारिका ७) । इस आधार पर यह नहीं सोचें कि पदार्थ है ही नहीं — व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि सन्देहादलक्षणम् ।
( ७. कार्य-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत )
इह कार्यकारणभावे चतुर्धा विप्रतिपत्तिः प्रसरति । असतः सज्जायत इति सौगताः संगिरन्ते । नैयायिकादयः सतोऽसज्जायत इति । वेदान्तिनः सतो विवर्तः कार्यजातं न वस्तुसदिति । सांख्याः पुनः सतः सज्जायत इति । यहाँ पर कार्य और कारण के परस्पर सम्बन्ध को लेकर चार प्रकार के विभिन्न मतवाद हैं । बौद्ध ( शून्यवादी ) कहते हैं कि असत् Non-existent ) से सत् पदार्थ की उत्पत्ति होती है । नेयायिक आदि ( वैशेषिक भी ) कहते हैं कि सत् पदार्थ ( कारण ) से असत् कार्यं उत्पन्न होता है । वेदान्तियों (अद्वैत ) की मान्यता है कि सत् कारण से विवर्त ( कल्पित ) कार्य उत्पन्न होता है और सारे कार्यों की वास्तविक सत्ता नहीं रहती । लेकिन सांख्यवाले कहते हैं कि सत् कारण से सत् कार्य ही उत्पन्न होता है ।
१. सांख्य और मीमांसा दर्शनों में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते । अतः किसी विशेष पुरुष ( ईश्वर ) के बनाये न रहने से वेद को अपौरुषेय मानते हैं । सांख्यसूत्र ( ५२४६ ) में कहा है-न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् । ( बालरामोदासीन की विद्वत्तोषिणी टीका -- त० कौ० पर । )