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सर्वदर्शनसंग्रहे
सम्भव नहीं था । ( ४ ) जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न करने में शक्त या समर्थ है, उससे उसी कार्य की उत्पत्ति होती है [ मिट्टी में कल्पित शक्तिविशेष यदि घट से सम्बद्ध है तो घट को ही उत्पन्न करेगा ] और ( ५ ) कार्य कारणात्मक अर्थात् उसी के स्वरूप का होता है ( = कार्य और कारण अभिन्न होते हैं ) ' ( सां० का० ९ ) । ( ८ क. विवर्तवाद का खण्डन )
नापिसतो ब्रह्मतत्त्वस्य विवर्तः प्रपञ्चः । बाधानुपलम्भात् । अधिष्ठानारोप्ययोश्विज्जडयोः कलधौतशुक्त्यादिवत्सारूप्याभावेनारोपासम्भवाच्च । आप यह भी नहीं कह सकते कि यह प्रपंच ( संसार ) उस सत् ब्रह्मतत्त्व का विवर्त अर्थात् कल्पित रूप है । कारण यह है कि [ जैसे 'यह चांदी नहीं सीपी है' भ्रान्ति नष्ट होने पर ऐसे वाक्य से चाँदी का विरोध या बाध किया जाता है; उस प्रकार 'यह संसार नहीं है' ऐसा ] विरोध व्यवहार में नहीं मिलता । चेतन और जड़ जो क्रमशः आधार ( अधिष्ठान, ब्रह्म ) तथा आधेय ( प्रपञ्च ) हैं, उनमें चाँदी और सीपी की तरह की समानता न होने से परस्पर आरोप नहीं हो सकता । [ सीपी और चाँदी में तो एकरूपता है कि दोनों ही उजले हैं, परन्तु भला ब्रह्म ( चेतन ) और संसार ( जड़ ) में किस पदार्थ को लेकर एकरूपता हो सकती है। आरोप का हेतु कोई सारूप्य न होने से ब्रह्म पर प्रपञ्च का आरोप सम्भव नहीं है । ' कलधौतशुक्त्यादि के समान' यह वैधर्म्य का दृष्टान्त है, क्योंकि ब्रह्मप्रपञ्च के परस्पर सम्बन्ध के विरुद्ध है - जैसे कलधौत ( चाँदो ) और शुक्ति ( सीपी ) में समता है वैसे ब्रह्म और प्रपन्च में नहीं । यदि कलधौत का अर्थ स्वर्ण लिया जाय तो साधर्म्य का ही दृष्टान्त हो जायगा -- जैसे स्वर्ण ( पीला ) और सीपी ( उजली ) में समरूपता न होने से परस्तरारोप नहीं होता वैसे ही ब्रह्म और प्रपंच में भी समरूपता न होने से आरोप नहीं होगा | ]
( ९. प्रधान या प्रकृति की सिद्धि )
ततश्च सुखदुःखमोहात्मकस्य प्रपश्वस्य तथाविधकारणमवधारणीयम् । तथा च प्रयोगः - विमतं भावजातं सुखदुःखमोहात्मककारणकं तदन्वितत्वात् । यद्येनान्वीयते तत्तत्कारणकं यथा रुचकादिकं सुवर्णान्वितं सुवर्णकारणकम् । तथा चेदं तस्मात्तथेति ।
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इसके बाद सुख, दुःख और मोह से बने हुए इस संसार का वैसा ही कारण विचारना चाहिए । इसके लिए ( परार्थानुमान का ) यह प्रयोग होगा
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( १ ) प्रतिज्ञा- ये सभी प्रस्तुत ' पदार्थ सुख, दुःख और मोह से बने किसी कारण से उत्पन्न हुए हैं ।
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१. विमत, विवादाध्यासित आदि शब्दों का प्रयोग पक्ष ( Minor term ) के विशेषण रूप में किया है। इसका अर्थ है - सन्दिग्ध या जिस पर वाद-विवाद चल रहा है वह