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पाणिनि-दर्शनम्
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त्यादि वाच्यम् । एवं च तस्यामेव गवादिभेदभिन्नायां सत्तायां जातौ सर्वे गोशब्दादयो वाचकत्वेन व्यवस्थिताः ।
आधार के रूप में जो सम्बन्धी हैं उनके द्वारा भेद किये जाने पर, जो भेद वस्तुतः कल्पित है वास्तविक नहीं, गो-अश्व आदि में रहनेवाली सत्ता ही महासामान्य ( Summum genus ) या जाति है । गोत्व आदि जो अपर ( नीचे के ) सामान्य हैं, वास्तव में उस ( महासामान्य ) से भिन्न नहीं हैं। गो की सत्ता ( सभी गोव्यक्तियों में अनुस्यूत सत्ता ) ही गोत्व है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा सम्बन्धी प्रतिभासित नहीं होता । इसी तरह अश्व की सत्ता ही अश्वत्व है, दूसरा कुछ नहीं - - ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार गो आदि ( आधार ) के भेद के कारण भिन्न प्रतीत होनेवाली उसी सत्ता अर्थात् जाति में गो आदि सभी शब्द वाचक के रूप में व्यवस्थित हैं । [ रामानुज-दर्शन में भी सभी शब्दों को परमात्मा का ही वाचक माना गया है, देखिए - रा० द० अनुच्छेद १२, पृ० २०६ । ]
प्रातिपदिकार्थश्च सत्तेति प्रसिद्धम् । भाववचनो धातुरिति पक्षे भावः सत्तैवेति धात्वर्थः सत्ता भवत्येव । क्रियावचनो धातुरिति पक्षेऽपि 'जातिमन्ये क्रियामाहुरनेकव्यक्तिर्वार्तनीम्' इति क्रियासमुद्देशे ( वा० प० ३।८ ) क्रियाया जातिरूपत्वप्रतिपादनाद्धात्वर्थः सत्ता भवत्येव ।
इस प्रकार प्रातिपदिकार्थ को सत्ता भी कहते हैं यह तो प्रसिद्ध ही है । [ अब धात्वर्थ को सत्ता कैसे कहते हैं, यह देखें ] 'धातु वह है जो भाव का वाचक हो ।' यदि यह लक्षण मानते हैं तब तो भाव के सत्ता होने के कारण धात्वर्थ को सत्ता कहेंगे ही। यदि धातु का दूसरा लक्षण देते हैं कि क्रिया का वाचक धातु है तब तो 'कुछ लोग अनेक व्यक्तियों ( Individuals ) में विद्यमान रहनेवाली क्रिया को जाति कहते हैं' इस प्रकार भर्तृहरि ने जो वाक्यपदीय के क्रिया-समुद्देश ( ३1८) में क्रिया को जाति का रूप माना है उसी से सिद्ध होता है कि धात्वर्थ भी सत्ता है । [ सभी पाचक - व्यक्तियों में अवस्थित जो पाचकत्व-जाति है वही पचन क्रिया है, इस प्रकार वह भी जाति या सत्ता है ही । ]
'तस्य भावस्त्वतलौ' ( पा० सू० ५।१।११९ ) इति भावार्थेस्ट ला दीनां विधानात्सत्तावाचित्वं युक्तम् । सा च सत्ता उदयव्ययवैधुर्या त्या । सर्वस्य प्रपञ्चस्य तद्विवर्ततया देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छेदरा' हत्यात्सा सत्ता महानात्मेति व्यपदिश्यत इति कारिकाद्वयार्थः ।
'किसी पदार्थ का भाव -- इस अर्थ में त्व और तल प्रत्यय होते हैं' ( पा० सू० ५|१| ११९ ) इस सूत्र के द्वारा भाव के अर्थ में होनेवाले त्व, तल और अन्य प्रत्ययों का भी विधान करने से, ये प्रत्यय सत्तावाचक हैं, ऐसा कहना युक्तिसंगत है । उत्पत्ति और विनाश से रहित होने के कारण यह सत्ता नित्य है । यह सारा प्रपञ्च ( संसार, उसके पदार्थ ) उस सत्ता के ही विवर्त ( प्रतिभासित रूप ) हैं, वह सत्ता देश के परिच्छेद से रहित है ( स्थान