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सर्वदर्शनसंग्रहे
ऐसा ही कहा गया है - ' इसलिए शक्ति ( शब्दार्थं बोध करानेवाली शक्ति ) का विभाग करने से जब शब्द के वाच्यत्व की अवस्था आती है तब वही एकात्मक अर्थं जो सत्य, सर्वव्यापक तथा सद्रूप है, बहुत रूपों में प्रकाशित हो जाता है ।' ( विभिन्न शब्दों की सामर्थ्य का विभाजन करने पर वे शब्द वाच्यार्थ का बोध कराते हैं किन्तु ये सारे अर्थ उस एकात्मक सत्य ब्रह्मसत्ता के ही आभास हैं । )
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भर्तृहरि ने सम्बन्ध - समुद्देश में अर्थ के सत्यस्वरूपका वर्णन भी किया है- 'त्रयी (वेद) के अन्त ( वेदान्त ) को जाननेवालों का कहना है कि जहाँ द्रष्टा ( देखनेवाला ), दृश्य ( वस्तु ) तथा दर्शन ( क्रिया ) – इन तीनों की कल्पना नहीं रहती है, उसी [ आत्मारूपी एकात्मक ] अर्थ को सत्य कहते हैं ।। १८ ॥ द्रव्यसमुद्देश में भी वे कहते हैं- 'जो विकार की अवस्था आने पर भी सच्चा ही बना रहे जैसे कुण्डल बन जाने पर भी स्वर्ण की सत्ता रहती है तथा जिसमें विकार का आना-जाना होता रहे उसे ही परम प्रकृति कहते हैं ॥ १९ ॥ '
( १३. अद्वैत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि )
अभ्युपगताद्वितीयत्व निर्वाहाय वाच्यवाचकयोरविभागः
( वा० प० ३।२।१६ ) -
प्रदशितः
२०. वाच्या सा सर्वशब्दानां शब्दाच्च न पृथक्ततः । सम्बन्धस्तयोर्जीवात्मनोरिव ॥ इति ।
अपृथक्त्वेऽपि
तत्तदुपाधिपरिकल्पितभेदबहुलतया व्यवहारस्याविद्यामात्रकल्पितत्वेन प्रतिनियताकारोपधीयमानरूपभेदं ब्रह्मतत्त्वं सर्वशब्दविषयः । अभेदे च पारमार्थिके संवृतिवशाद् व्यवहारदशायां स्वप्नावस्थावदुच्चावचः प्रपञ्चो विवर्तत इति कारिकार्थः ।
ऊपर सिद्ध किये गये अद्वैत तत्त्व के निर्वाह के लिए वाच्य ( ब्रह्मसत्ता ) और वाचक ( स्फोट ) में अभेद भी दिखाया गया है - ' वह ( ब्रह्मसत्ता ) सभी शब्दों का वाच्य है, वह उस ( नित्यस्फोटरूपी ) शब्द से पृथक् नहीं है | पृथक् न होने पर भी दोनों का सम्बन्ध जीव और परमात्मा की तरह है ।' [ यद्यपि ब्रह्मसत्ता और स्फोट एक ही हैं, पर कल्पना के कारण उन दोनों का पारस्परिक सम्बन्ध प्रतिभासित होता है । जीव और परमात्मा एक ही है, परन्तु कल्पना से ही व्यवहारदशा में नियाम्य- नियामक भाव का सम्बन्ध प्रतिभासित होता है । उसी प्रकार स्फोट और ब्रह्मसत्ता का सम्बन्ध है जो काल्पनिक है । ]
ब्रह्मतत्त्व ही सभी शब्दों का विषय ( वाच्य ) है; उस ( ब्रह्मतत्त्व ) में प्रत्येक वस्तु के निश्चित आकार के अनुसार रूप के भेदों का आरोपण होता है, किन्तु यह उन वस्तुओं की उपाधियों ( Conditions ) के द्वारा कल्पित भेदों के बाहुल्य के कारण तथा व्यवहार