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सर्वदर्शनसंग्रहे
ब्रह्म से पृथक् है, यहां नाना प्रकार की सत्ताएं हैं आदि । वैयाकरण शब्दतत्त्व को ही ब्रह्म कहते हैं, यह दूसरी बात है । वेदान्तसार में सदानन्द ने दोनों वादों का अन्तर बहुत संक्षिप्त और सुन्दर रूप में स्पष्ट किया है
सतत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विकार इत्युदीरितः ।
अतत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विवर्त इत्युदीरितः ॥ तत्त्व के साथ ( वास्तव में ) दूसरे रूप में समझना विकार है, तत्त्व के बिना ( भ्रम ) दूसरे रूप में समझना विवर्त कहलाता है ।
. ( २. प्रकृति का अर्थ ) तत्र केवला प्रकृतिः प्रधानपदेन वेदनीया मूलप्रकृतिः। नासावन्यत्य कस्यचिद् विकृतिः। प्रकरोतीति प्रकृतिरिति व्युत्पत्त्या सत्त्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्थाया अभिधानात् । तदुक्तं-'मूलप्रकृतिरविकृतिः' ( सा० का० ३ ) इति । मूलं चासौ प्रकृतिश्च मूलप्रकृतिः ।
महदादेः काकर्यलापस्यासौ मूलं न त्वस्य प्रधानस्य मूलान्तरमस्ति । अनवस्थापातात् । न च बोजाङकुरवदनवस्थादोषो न भवतीति वाच्यम् । प्रमाणाभावादिति भावः।
इनमें केवल प्रकृति का अर्थ है 'प्रधान' के नाम से पुकारी जानेवाली मूल-प्रकृति । यह किसी भी दूसरे पदार्थ की विकृति ( विकार ) नहीं है । प्रकृष्ट रूप से ( तत्त्वों का उत्पादन करते हुए ) कार्य करे (प्र+ V ) वही प्रकृति है--इस प्रकार की व्युत्पत्ति (निर्वचन ) से 'सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्यावस्था का बोध होता है' कहा भी है'मूल-प्रकृति बिना विकृति के ही है' ( सां० का० ३) । वह इसलिए मूल प्रकृति कहलाती है कि वह मूल भी है और प्रकृति ( उत्पादक ) भी।
महत् आदि कार्य-समूह का मूल ( Root ) वही प्रकृति ही है, किन्तु इस प्रधान का कोई दूसरा मूल ( कारण ) नहीं । [ यदि इस प्रधान के भी कारण की खोज करेंगे तो] अनवस्था-दोष होगा। [ प्रकृति का कारण खोजने पर उस कारण का भी कोई दूसरा कारण होगा -इस कारण-शृङ्खला का कहीं अन्त नहीं होगा, इसलिए कहीं पर ठहरना आवश्यक है । मूल-प्रकृति को ही अन्तिम कारण मान लेने से अनवस्था-दोष नहीं लगेगा।
'बीज और अंकुर में जिस प्रकार अनवस्था दोष नहीं लगता उसी प्रकार यहां भी नहीं होगा'-इसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इसके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता यही अभिप्राय है। [बीज का कारण अंकुर है किन्तु अंकुर का कारण दूसरा ही बीज है, वह बीज नहीं । उस बीज का कारण भी दूसरा ही अंकुर है, वह अंकुर नहीं । इस प्रकार