________________
सांख्य दर्शनम् विशेष—यह ध्येय है कि माधवाचार्य अन्य दर्शनों में मूल-सूत्रों तथा उनकी व्याज्याओं की सहायता लेते हैं । उद्धरण देने में वे सबसे प्राचीन उपलब्ध तथा प्रामाणिक ग्रन्थ का आश्रय लेते हैं। किन्तु सांख्य-दर्शन के विवेचन में वे ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका की ही सहायता लेते हैं । इसका कारण यह है कि उनके अनुसार सांख्यकारिका ही प्राचीनतम प्रामाणिक पुस्तक थी। सांख्य-दर्शन के इतिहास में कपिल आदि ऋषि हैं अवश्य, किन्तु इनके नाम से जो सांख्य-सूत्र प्रचलित हैं वह प्रामाणिक नहीं। बाद के किसी विद्वान ने उनके नाम से सांख्य-सूत्र और सांख्यसमाससूत्र ( तत्त्वसमास ) की रचना की थी। १५०० ई० से पूर्व इन दोनों में किसी ग्रन्थ का उल्लेख तक नहीं मिलता। ___ईश्वरकृष्ण से पहले के आचार्यों में कपिल, आसुरि और पञ्चशिख क्रमशः गुरु-शिष्य थे। परन्तु इनके ग्रन्थों का पता नहीं। कितने लोग तो इनकी ऐतिहासिकता में भी सन्देह करते हैं । एक दूसरे आचार्य वार्षगण्य ने षष्टितन्त्र लिखा था जिसका उल्लेख सांख्यकारिका में मिलता है । सांख्य-दर्शन में सबसे अधिक प्रामाणिक ईश्वरकृष्ण थे जिन्होंने सांख्यकारिका लिखी । इसमें आर्या छन्द में ७२ कारिकाएं हैं जो सांख्य के विषय में स्पष्ट और निश्चित सिद्धान्त देती हैं। वस्तुतः सांख्य-दर्शन कहने से सांख्य-कारिका का ही बोध होता है । इसके समय के विषय में पर्याप्त मतभेद है, फिर भी १००-२०० ई० के बीच में यह कभी-न-कभी लिखी गई थी। बहुत से आचार्यों ने इस पर वृत्ति, भाष्य और टीकाएँ लिखी थीं। इनमें वाचस्पति मिश्र (८५० ई०) की तत्वकौमुदी बहुत प्रसिद्ध है इनके पाण्डित्य के अनुकूल ही यह टीका अत्यन्त प्रामाणिक भी है ।
सोलहवीं शताब्दी से सांख्यसूत्र और तत्त्वसमास पर टीकाएं मिलने लगती हैं। विज्ञान-भिक्षु ( १५५० ई० ) ने सूत्र पर भाष्य लिखकर स्वतन्त्र रूप से सांख्यसारविवेक नामक ग्रन्थ लिखा । नागेशभट्ट ने भी सूत्रों पर वृत्ति लिखकर अपना हाथ आजमाया था ( १७२५ ई० )। तत्त्वसमास के टीकाकारों में भावागणेश ( १५७५ ई० ) और विभानन्द मुख्य हैं । भावागणेश ने स्वतन्त्र रूप से भी सांख्यसार, सांख्यपरिभाषा और सांख्यतत्त्वप्रदीपिका-ये तीन ग्रन्थ लिखे थे।
(४. केवल विकृति के रूप में वर्तमान तत्त्व) केवला विकृतिस्तु वियदादीनि पञ्च महाभूतानि, एकादशेन्द्रियाणि च। तदुक्तं-'षोडशकस्तु विकारः ( सां० का० ३) इति । षोडशसंख्यावच्छिन्नो गणः षोडशको विकार एव, न प्रकृतिरित्यर्थः । यद्यपि पृथिव्यावयो गोघटादीनां प्रकृतिस्तथापि न ते पृथिव्याविभ्यस्तत्त्वान्तरमिति न प्रकृतिः। तत्त्वान्तरोपादानत्वं चेह प्रकृतित्वमभिमतम् । गोघटादीनां स्थूलत्वेन्द्रियग्राह्यत्वयोः समानत्वेन तत्त्वान्तरत्वाभावः ।