________________
तस्वद्वयं स पुरुषः प्रकृति द्वतीया
१४
सांख्य-दर्शनम्
धत्ते गुणानपि च सत्त्वरजस्तमांसि ।
सर्व जगच्चलति तत्परिणामरूपं
तत्सांख्यका रमिह तं कपिलं नमामि ॥ ऋषिः । ( १. सांख्य दर्शन के तत्त्व )
अथ सांख्यं राख्याते परिणामवादे परिपन्थिनि जागरूके कथंकारं विवतंवाद : आदरणीयो भवेत् । एष हि तेषामाघोषः। संक्षेपेण हि सांख्यशास्त्रे चतस्रो विधा: सम्भाव्यन्ते । कश्चिदर्थः प्रकृतिरेव, कश्चिद्विकृतिप्रकृतिश्च, कश्चिद्विकृतिरेव कश्चिवनुभय इति ।
सांख्य- दार्शनिकों का कहा हुआ परिणामवाद है, इस विरोधी सिद्धान्त के जगे रहने पर भी [ पाणिनि-दर्शन का ] विवर्तवाद कैसे सम्मानित हो सकता है ?- - उन सांख्यों का यही नारा है । संक्षेप में सांख्य-शास्त्र में [ कहे गये पदार्थों के ] चार प्रकार हो सकते हैंकुछ पदार्थं केवल प्रकृति ( मूल रूप है ), कुछ प्रकृति और विकृति दोनों हैं, कुछ केवल विकृति ही हैं और कुछ पदार्थ दोनों में से कुछ भी नहीं ( = पुरुष ) ।
विशेष - जब सत्तायुक्त ( Existent ) द्रव्य एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब इस क्रिया को परिणाम या विकास ( Evoluton ) कहते हैं, सांख्यों का मत है कि प्रकृति आदि तत्त्व अपने-अपने कार्य के रूप में परिणत होते हैं। कार्य की सत्ता कारण के रूप में है जो निमित्त कारण के व्यापार से अभिव्यक्त हो जाता है । इसे सत्कार्यवाद कहते हैं । इसी के आधार पर ये लोग परिणामवाद भी मानते हैं । इसमें कारण की अवस्था तथा कार्यावस्था, दोनों दशाओं में द्रव्य सत्तायुक्त ही रहता है । विकार, परिणाम, विकास, अभिव्यक्ति, सत्कार्य - ये एकार्थक शब्द हैं, इनमें किसी वाद से सांख्य का ही बोध होता है । विवर्तवाद परिणामवाद का उलटा है । जब द्रव्य अपना पहला रूप न छोड़े किन्तु किसी भिन्न असत् रूप में दिखलाई पड़े तो इसे विवर्त कहते हैं, जैसे रस्सो ( मूल रूप ) का साँप के रूप में दिखलाई पड़ना । इसमें वास्तविक परिवर्तन नहीं होता किन्तु भ्रान्ति से वंसा रूपान्तर केवल प्रतीति होता है । वैयाकरण तथा अद्वेत वेदान्ती लोग विवर्तवाद मानते हैं। उनका कहना ब्रह्म अधिष्ठान ( आधार, मूल तत्त्व ) है, यह सम्पूर्ण संसार उसी ब्रह्म का विवर्त है - भ्रान्ति से प्रतीत होता है कि यह जगत्