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पाविनि-पर्शनम्
५२३ १।२।६४ ) इत्यादिः । व्याकरणस्य सर्वपार्षदत्वान्मतद्वयाभ्युपगमे न कश्चिविरोधः । तस्मावद्वयं सत्यं परं ब्रह्म तत्वं सर्वशम्दार्थ इति स्थितम् ।
आचार्य पाणिनि को [ शब्दार्थ रूप में जाति और द्रव्य या व्यक्ति ] दोनों ही मान्य है। इसका कारण यह है कि जाति को पदार्थ मानकर उन्होंने 'जत्याख्यायाम्-'" (अर्थात जाति का वर्णन करने पर एकवचन शब्द विकल्प से बहुबचन होता है-पा० स० १।२।५८ ) इत्यादि सूत्रों का प्रयोग किया है। [ ऊपर के सूत्र के उदाहरण में 'ब्राह्मणः पूज्यः' और 'ब्राह्मणाः पूज्याः' देते हैं जिनका अर्थ है कि ब्राह्मण जाति पूज्य है । यहाँ ब्राह्मण शब्द का अर्थ है ब्राह्मणत्व जाति । अतः पाणिनि को जाति पदार्थ मान्य है।] द्रव्य को पदार्थ मानकर पाणिनि ने 'सरूपाणाम् -' ( अर्थात् एक समान विभक्ति में रहनेवाले जितने सरूप शब्द हैं उनमें एक ही शब्द बच रहता है-पा० सू० १।२।६४ ) इत्यादि लिखा है। [ उदाहरण है-रामश्च रामश्च रामो। यदि यह सूत्र नहीं होता तो 'घटश्च पटश्च घटपटी' की तरह द्वन्द्वसमास में यहाँ भी 'रामरामो' होता । व्यक्ति अनेक होते हैं इसलिए उनके अनुसार कई 'राम' शब्दों का प्रयोग एक ही साथ होता-उसे रोकने के लिए यह एकशेषविधायक सूत्र है। किसी भी दशा में व्यक्ति को पदार्थ मानने का श्रेय इस सूत्र को प्राप्त है । ]
व्याकरण-शास्त्र सभी सभासदों के लिए समान है अतः दोनों मतों को मान लेने में कोई विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता। [ व्याकरण सभी लोगों के मतों पर ध्यान रखता है, जनतान्त्रिक है अतः सभी मतों को माना जा सकता है। हां, उनमें परस्पर विरोध न हो।] इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि अद्वैत, सत्य तथा परम ( सर्वोच्च ) ब्रह्मतत्त्व हो सभी शब्दों का अर्थ है। चाहे वह जाति पक्ष हो या व्यक्ति-पक्ष । जाति-पक्ष में गोत्वादि जातियों को ब्रह्म की सत्ता से पृथक् मानते ही नहीं। व्यक्ति (द्रव्य )-पक्ष में असत्य व्यक्ति की उपाधि के द्वारा सत्य ब्रह्मतत्त्व का प्रतिपादन होता है।) तदुक्तम् (वा०प० ३।३।८७ )
१७. तस्माच्छक्तिविभागेन सत्यः सर्वः सदात्मकः ।
एकोऽर्थः शब्दवाच्यत्वे बहुरूपः प्रकाशते ॥ इति । सत्यस्वरूपमपि हरिणोक्तं सम्बन्धसमुद्देशे ( ७२ )
१८. यत्र द्रष्टा च दृश्यं च दर्शनं चाविकल्पितम् ।
तस्यैवार्थस्य सत्यत्वमाहुस्त्रय्यन्तवेदिनः ॥ इति । द्रव्यसमुद्देशेऽपि ( वा०प० ३।२।१५)
१९. विकारापगमे सत्यं सुवर्ण कुण्डले यथा।
विकारापगमो यत्र तामाहुः प्रकृति पराम् ॥ इति ।