________________
पाणिनि-दर्शनम
५२१
'जाति को ही शब्दार्थ माननेवाले वाजप्यायन में अनुसार, 'गो' आदि शब्द भिन्नभिन्न द्रव्यों में ( संज्ञाओं या व्यक्तियों) में समवेत जाति का ही अभिधान करते हैं । जाति मैं अवगाहन करने के बाद ( = जाति की प्रतीति होने पर ) उसके सम्बन्ध से द्रव्य का ज्ञान होता है । शुक्ल आदि गुण से समवेत जाति का ही अभिधान करते हैं। उसके साथ सम्बन्ध होने से गुण की प्रतीति होती है । द्रव्य की प्रतीति तो [ उस प्रकार की जाति के ] सम्बन्धी गुण के सम्बन्ध से होती 1
विशेष - वाजप्यायन जाति को पदार्थ मानते हैं, व्याडि व्यक्ति को । पाणिनि के मत से दोनों ही पदार्थ हैं। इन पक्षों का वर्णन भी यथास्थान प्राप्त होगा । शब्दों के चार भेद होते हैं –जाति, गुण, संज्ञा और क्रिया । ये भेद प्रवृत्ति-निमित्त ( शब्दों के व्यवहार के कारण ) में भेद पड़ने के कारण होते हैं । जो शब्द जाति के व्यवहार का कारण हो वह जाति-शब्द है, आदि-आदि। इनके उदाहरण 'गोः, शुक्लः, डित्थः तथा चल: ' हैं । एक ही व्यक्ति 'गो' पर ये चारों शब्द प्रयुक्त होते हैं । उस व्यक्ति ( Individual ) गो में गोत्व जाति जानकर 'गौ' शब्द का प्रयोग करते हैं । उसी गो-व्यक्ति में शुक्ल गुण को जानकर 'शुक्ल' शब्द का प्रयोग ( प्रवृत्ति ) करते हैं । उसी में चलन-क्रिया देखकर 'चल : ' शब्द की प्रवृत्ति होती है और उसी व्यक्ति की 'डिल्थ' संज्ञा ( Name ) देखकर 'डित्थ : ' शब्द की प्रवृत्ति भी होती है ।
अब इस पर अनेक मत होंगे। प्रवृत्ति का निमित्त जात्यादि हैं और वे ही उन-उन शब्दों के वाच्य अर्थ हैं । व्यक्ति उसी पर आश्रित है अतः उसकी प्रतीति आक्षेप ( Projection ) आदि साधनों से ही होती है । एक यह मत है जिसके अनुयायी वाजप्यायन हैं, किन्तु वे यह मानते हैं कि चारों प्रवृत्ति के निमित्त नहीं हैं किन्तु सभी शब्द जाति के रूप में ही हैं । दूसरा वह मत है जिसमें कहा जाता है कि प्रवृत्तिनिमित्त अनेक व्यक्तियों ( Individuals ) में अनुगमन करता है, अतः केवलं उनका उपलक्षण ( संकेतमात्र ) है । व्यक्ति ही वाच्यार्थ है । तीसरे मत में प्रवृत्ति - निमित्त से जातिविशिष्ट व्यक्ति को वाच्यार्थं मानते हैं ।
वाजप्यायन के मत का विश्लेषण करें - अर्थ केवल जाति ही है । अनेक गो-व्यक्तियों में समवेत ( Inherent नित्य रूप से सम्बद्ध ) गोत्वजाति ही 'गो' का प्रवृत्तिनिमित्त है | वह ( जाति ) ही उसका वाच्यार्थ है । घटादि में वर्तमान जो शुक्ल गुण है उसमें भी शुक्लत्वजाति है जो 'शुक्ल' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है । वह शुक्लत्व ( जाति ) ही 'शुक्ल' शब्द का वाच्यार्थ है । 'शुक्ल' शब्द से शुक्ल-गुण की प्रतीति उसी जाति के सम्बन्ध से होती है । शुक्ल गुण से विशिष्ट घटादि द्रव्य की प्रतीति ( = उजले घड़े का ज्ञान ) 'शुक्ल' शब्द से होती है अर्थात् शुक्लत्व जाति के सम्बन्धी 'शुक्ल' गुण के सम्बन्ध से होती है ( द्रव्ये सम्बन्धिसम्बन्धात् ) ।