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सर्वदर्शनसंग्रहे
की सीमा में नहीं बांधी जा सकती - सर्वत्र होने के कारण वह व्यापक है ), काल की सीमा भी उसमें नहीं ( क्योंकि नित्य है ) तथा वस्तु का बन्धन भी उस पर नहीं है [ कि यह सत्ता किसी एक ही वस्तु में है - यह तो सभी वस्तुओं का आधार है क्योंकि वस्तुओं और सत्ता में अभेद-सम्बन्ध है ], इसलिए इस सत्ता को 'महान आत्मा' ऐसा कहकर पुकारते हैं । [ यह प्रपंच महान् या अनादि है, सत्ता में ही अवभासित होता है अतः तीन प्रकार के परिच्छेदों (Limitaions ) से रहित होने के कारण 'ब्रह्म' के रूप में ही है । ] यही दोनों कारिकाओं ( वा० प० ३।१।३३-३४ ) का अर्थ है |
विशेष - स्मरणीय है कि माधवाचार्य वाक्यपदीय का पाणिनि-दर्शन का अधारग्रन्थ मानते हैं, क्योंकि प्रमाण देने में या दार्शनिक तथ्यों को समझाने में वे बार-बार उसी का उल्लेख करते हैं । वस्तुतः भर्तृहरि ने ( ६६० ई० ) महाभाष्य में विशृंखलित दार्शनिक विचारधाराओं को संकलित करके पाणिनि व्याकरण का एक दर्शन का रूप दे दिया । इनका वाक्यपदीय ही भट्टोजिदीक्षित ( १५७८ ई० ) की कृति — वैयाकरणसिद्धान्तकारिका — का उपजीव्य था । दीक्षित की उक्त कृति पर कोण्डभट्ट ( १६४० ई० ) ने वैयाकरण-भूषण नाम की टीका लिखी । नागेश भट्ट ( १७१४ ई० ) ने व्याकरण के अन्य ग्रन्थों के अतिरिक्त पाणिनि-दर्शन पर अपनी मञ्जूषाएं ( बृहत्, लघु और परमलघु ) प्रस्तुत की । इन सबों ने प्रायः निम्नलिखित विषयों पर विचार प्रकट किये थे – स्फोट, शक्ति, वाक्यार्थ, धात्वर्थ, लकारार्थ, कारक, प्रातिपदिकार्थ, समासादि की वृत्तियाँ आदि । कुछ वैयाकरणों तथा नेयायिकों ने भी इनमें एकाध विषय को लेकर अपने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे थे । यह पाणिनिदर्शन की रूपरेखा थी । माधवाचार्य ने सभी विषयों पर 'दर्शन' में विचार नहीं किया है | दुःख है कि अभी तक ये सभी विचार दूसरी भाषाओं के पाठकों तक नहीं पहुँचे । बंगला में एक बहुत ही प्रौढ़ ग्रन्थ 'व्याकरणदर्शनेर इतिहास' ( प्रथम खण्ड ) श्रीगुरुपद हालदार ने लिखा है जिसमें व्याकरण के व्यावहारिक और सैद्धान्तिक दोनों पक्षों पर सुलझे और विस्तृत विचार दिये गये हैं । अंगरेजी में प्रभातचन्द्र चक्रवर्ती का Philo sophy of Grammar ( 'व्याकरण-दर्शन' ) पी-एच० डी० की थीसिस है जिसमें कुछ प्रश्नों का सामान्य विश्लेषण किया गया है । डा० कपिलदेव द्विवेदी की थीसिस 'अर्थविज्ञान और व्याकरण-दर्शन' भी इस दिशा का स्तुत्य प्रयास है, पर ये सभी ग्रन्थ सामान्य दृष्टिकोण से - व्याकरण को दर्शन मानकर नहीं लिखे गये हैं ।
( १०. द्रव्य को पदार्थ माननेवालों का विचार ) द्रव्यपदार्थवादिनोऽपि नये संविल्लक्षणं तत्त्वमेव सर्वशब्दार्थ इति सम्बन्धसमुद्देशे समर्थितम् -
१५. सत्यं वस्तु तदाकाररसत्यं रवधार्यते । असत्योपाधिभिः शब्दः सत्यमेवाभिधीयते ॥
( वा० प० ३।१।२ )