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पाणिनि-दर्शनम् ( २।२।६० )-इस प्रकार दो बड़े-बड़े आचार्य विभक्त्यन्त वर्गों को ही पद संज्ञा देते हैं अतः [ वृद्धव्यवहारादि उपायों से ] संकेत-ग्रहण करके [ इन वर्गों में उत्तरोत्तर ] सहायकसम्बन्ध मानकर वर्णों को ही तो पद कहना पड़ेगा । [ उक्त दो आचार्यों के सूत्रों से ध्वनित होता है कि वर्ण-समुदाय ही पद है-उसके अतिरिक्त स्फोट नाम का कोई पदार्थ नहीं है। यह प्रश्न हो सकता है कि वर्ण तो शीघ्र ही नष्ट होनेवाले हैं उनका समूह कैसे हो सकता है ? परन्तु वृद्धव्यवहार आदि के द्वारा हम वर्णसमुदाय में संकेत ( Conventional relation ) ग्रहण करेंगे कि अमुक वर्णसमुदाय अमुक वस्तु से सम्बद्ध है। पूरे समुदाय से एक ही अर्थ की प्रतीति होगी। अब इन विनाश वर्गों में उत्तरोत्तर अनुग्रहभाव होगा-एक वर्ण दूसरे :वर्ण की सहायता करता चला जायगा और उस विद्यमान वर्णसमुदाय का एकात्मक अर्थ मान लेंगे । अतः समूह की कल्पना से भी पदबोध हो सकता है।]
[वैयाकरण बीच में छेड़ते हैं कि ] तब तो 'सर' इस पद में जितने वर्ण हैं उतने ही 'रस' में भी हैं। इसी तरह, वन और नव, नदी और दीन, राम और मार, राज और जार में भी बराबर-बराबर ही वर्ण हैं तो अर्थभेद की प्रतीति नहीं होगी। [ विरोधी कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं, वर्गों के क्रम में भेद होगा तो अर्थ में भी भेद पड़ेगा। तदुक्तं तौतातितः
९. यावन्तो यादृशा ये च यदर्थप्रतिपत्तये।
वर्णाः प्रज्ञातसामर्थ्यास्ते तथैवावबोधकाः ॥ इति । तस्माद्यश्चोभयोः समो दोषो न तेनैकश्वोद्यो भवतीति न्यायाद्वर्णानामेव वाचकत्वोपपत्तौ नातिरिक्तस्फोटकल्पनावकल्पत इति चेत् ।
[पूर्वपक्षी अन्त में कहते हैं ] तौतातित अर्थात् कुमारिल का कहना है कि जिन वर्णो की सामर्थ्य ( अर्थबोध कराने की शक्ति ) अच्छी तरह मालूम हो कि ये अर्थ की प्रतीति करा सकते हैं, वे वर्ण चाहे जितनी संख्या में हों, जिस किसी प्रकार के हों, वे उसी प्रकार से अर्थ का बोध कराते हैं। [ जिस अर्थ का बोध कराने की शक्ति वर्णों में होती है, वे उसी अर्थ का बोध कराते हैं । ] ___इसलिए 'जब दोनों का दोष एक ही तरह का है तो उस दोष से एक पर बिगड़ना ठीक नहीं है' इस न्याय से यह सिद्ध होता है कि वर्ण ही वाचक हैं अतः उनसे भिन्न स्फोट की कल्पना करना ठीक नहीं है । [ यहाँ मीमांसकों का पूर्वपक्ष समाप्त हुआ।]
विशेष-जब दो व्यक्तियों में दोनों का समान दोष हो, दोनों का परिहार भी एक ही हो, तो वैसे विषय का विचार करते समय एक व्यक्ति को दूसरे पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए । इसका यह श्लोक है
यश्चोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः । नेकः पर्यनुयोक्तव्यस्तागर्थविचारणे ॥