________________
५१३
पाणिनि-दर्शनम् - आप (पूर्वपक्षी ) यह भी नहीं कह सकते कि वर्षों में जो समूह है वह काल्पनिक या कृत्रिम है, क्योंकि ऐसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा । एक तरफ जब आप यह सिद्ध करेंगे कि [ वर्गों के कृत्रिम समूह से ] एकात्मक अर्थ की प्रतीति होती है तभी उस उपाधि ( शतं ) के आधार पर वर्गों में पदत्व का बोध होता है; और दूसरी ओर वर्गों में पदत्व की सिद्धि करने पर ही यह सिद्ध होगा कि उससे अर्थ का बोध होता है [ पदत्वप्रतीति और अर्थबोध-दोनों में कौन पहले होगा ? एकार्थबोध तथा पदत्व वर्णसमूह में नहीं है, किन्तु स्फोट में ही है । यदि स्फोट नहीं मानते तो इन दोनों को वर्गों में ही बैठाना होगा-इससे अन्योन्याश्रय तो होगा ही। ] अतः वर्ण वाचक नहीं हो सकते, तो स्फोट को मानना ही चाहिए।
(८.क. स्फोट पर अन्य आपत्तियां और समाधान ) ननु स्फोटव्यञ्जकतापक्षेऽपि प्रागुक्तविकल्पप्रसरेण घट्टकुटीप्रभातायितमिति चेत् तदेतन्मनोराज्यविज़म्भणम् । वैषम्यसम्भवात् । तथा हिअभिव्यञ्जकोऽपि प्रथमो ध्वनिः स्फोटमस्फुटमभिव्यनक्ति। उत्तरोत्तराभिव्यञ्जकक्रमेण स्फुटं स्फुटतरं स्फुटतमम् । यथा स्वाध्यायः सकृत्पठयमानो नावधार्यते । अभ्यासेन तु स्फुटावसायः। यथा वा रजतत्वं प्रथमप्रतीतौ स्फुटं न चकास्ति । चरमे चेतसि यथावदभिव्यज्यते। ___ अब ये ( पूर्वपक्षी ) लोग फिर आपत्ति कर सकते हैं कि यदि स्फोट का [ वर्गों के द्वारा ] अभिव्यंग्य होना मान भी लें फिर भी तो पहले कहे गये ( पूर्वपक्षी के द्वारा आरोपित, देखिये-७ क. का आरम्भ ) विकल्पों के प्रसार के कारण [ बचना चाहते हुए भी आप उनके चक्र में पड़ जायंगे जैसे कोई गाड़ीवान रात में चुंगी देने के डर से दूसरे रास्ते से रातभर चलता रहे और भूलता-भटकता ] प्रातःकाल चुंगोधर के हो सामने पहुँच जाय [ और उसे चुंगी ( Toll-tax ) चुकानी पड़े।]
हमारा कहना है कि यह सब करके आप अपने मन में पुए पकाते रहें ( मन को सन्तोष देते रहें)। [ इससे कुछ होने का नहीं क्योंकि ] दोनों में बहुत बड़ी विषमता है । देखिये-अभिव्यंजक होने पर भी प्रथम वर्ण स्फोट की अभिव्यक्ति अस्पष्ट रूप में ही करता है। [जैसे-जैसे वर्ण आते हैं वैसे-वैसे वे ] अपने उत्तरोत्तर अभिव्यंजक क्रम से स्पष्ट, स्पष्टतर और सबसे अधिक स्पष्ट रूप से अन्त में अभिव्यक्त कर देते हैं । [ इसलिए वर्ण चाहे स्पष्ट रूप से स्फोट की अभिव्यक्ति करे या अस्पष्ट रूप से, वह अभिव्यंजक है। ]
जिस प्रकार स्वाध्याय ( वेद ) एक बार पढ़ने से समझ में नहीं आता किन्तु अभ्यास करने से स्फुट होने लगता है । अथवा जिस प्रकार चांदी प्रथम प्रतीति में (पहले-पहले
३३ स० सं०