________________
४७८
सर्वदर्शनसंग्रहेआप्त वाक्यों में भी- चाहे पौरुषेय हो या अपौरुषेय, वैदिक या अवैदिक-हमारा विश्वास ऐसे ही उत्पन्न होता है । जब तक सन्देह का कोई कारण न हो, किसी सार्थक वाक्य को सुनकर हम उसमें तुरन्त विश्वास कर लेते हैं । इसलिए असन्दिग्ध वेद भी स्वतः प्रमाण है । यह अपौरुषेय है। इसकी प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है अनुमान से नहीं । हाँ, सन्देह और अविश्वास दूर करने के लिए तकों की आवश्यकता तो पड़ती है । सन्देह और अविश्वास दूर हो जाने पर वेद अपने अर्थों की अभिव्यक्ति स्वयं करते हैं तथा अर्थावबोध के साथ-साथ विश्वास (प्रामाण्य ) भी चलता रहता है । इसके लिए मीमांसक का एकमात्र कर्तव्य है कि जिन तर्कों के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता पर कुठाराघात करने की सम्भावना हो उन सबों का निवारण करे और यही किया भी गया है ।
यद्यपि सत्य (प्रामाण्य ) स्वयंसिद्ध है अर्थात् जब भी ज्ञान उत्पन्न होता है तो इसके साथ-साथ एक विश्वास भी लगा रहता है कि यह सत्य है, तथापि कभी-कभी सम्भावना होती है कि कोई दूसरा ज्ञान इसे गलत न सिद्ध कर दे या इसके साधनों को दोषपूर्ण न ठहराये। ऐसी स्थिति में इन दोषपूर्ण साधनों के आधार पर यह सिद्ध करने के लिए अनुमान करते हैं कि यह ज्ञान असत्य ( अप्रामाणिक ) है । स्पष्ट है कि ज्ञान की अप्रामाणिकता के लिए हमें अनुमान ( बाह्य-साधन ) पर अवलम्बित रहना पड़ता है। इसे ही 'परतः अप्रामाण्य' कहते हैं। फलतः जब कोई प्रत्यक्ष, अनुमान या कोई दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है तो उसे हम अपने आप स्वीकार कर लेते हैं, तर्क नहीं करते जब तक कि किसी विरोधी प्रमाण से उस पर सन्देह या अविश्वास करने की समस्या न आ जाये और हम अनुमान से उसका अप्रामाण्य न स्वीकार करें। इसी रूप में हमारा काम चलता है । इस प्रकार मीमांसक के मत का स्पष्टीकरण किया गया है।
( ११. क. स्वतःप्रामाण्य का अर्थ-लम्बी आशंका ) किं च किमिदं स्वतःप्रामाण्यं नाम ? किं स्वत एव प्रामाण्यस्य जन्म? आहोस्वित् स्वाश्रयज्ञानजन्यत्वम् ? किमुत स्वाश्रयज्ञानसामग्रीजन्यत्वम् ? उताहो ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्यज्ञानविशेषाश्रितत्वम् ? किं वा ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्रजन्यज्ञानविशेषाश्रितत्वम् ?
[ पूर्वपक्षी कहते हैं कि अच्छा बतलाइये- इस स्वतः प्रामाण्य का क्या अर्थ है ? क्या प्रामाण्य अपने आप से उत्पन्न होता है ? अथवा अपने आधार स्वरूप ज्ञान से उत्पन्न होता है ? क्या अपने आधारभूत ज्ञान की सामग्री से उत्पन्न होता है ? या क्या ज्ञान के साधारण कारणों ( सामग्री ) से जो विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें रहता है ? यह केवल ज्ञान के साधारण कारणों ( सामग्री मात्र ) से ही उत्पन्न होनेवाले विशेष ज्ञान में रहता है ? [ इनमें से कौन-सा अर्थ आप लेंगे-कोई भी ठीक नहीं है?]