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सर्वदर्शनसंग्रहे
यदि अभाव कार्य नहीं हो सकता तो घट को नित्य मानना पड़ेगा, क्योंकि घट के प्रध्वंस ( जो एक अभाव ही है ) की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । यदि अभाव कार्य हो सकता है तो कारण ने आपका क्या बिगाड़ा है कि अभाव को कारण नहीं होने देते हैं । इस प्रकार दोनों ओर से बाँधनेवाली रस्सी आपके ऊपर है [ जो आपको फँसा ही लेगी ] ।
तदुदितमुदयनेन
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भावो यथा तथाभावः कारणं कार्यवन्मतः ।
( न्या० कु० १1१० ) । इति । तथा च प्रयोगः - विमतं प्रामाण्यं ज्ञानहेत्वतिरिक्तहेत्वधीनं, कार्यत्वे सति तद्विशेषाश्रितत्वादप्रामाण्यवत् । प्रामाण्यं परतो ज्ञायते अनभ्यासदशायां सांशयिकत्वादप्रामाण्यवत् । तस्मादुत्पत्तौ ज्ञप्तौ च परतस्त्वे प्रमाणसम्भवात्स्वतः सिद्धं प्रामाण्यमित्येतत्पूतिकूष्माण्डायत इति चेत् — |
इसे उदयन ने भी कहा है - जिस प्रकार भाव कारण होता है उसी प्रकार अभाव भी कार्य की तरह कारण भी हो सकता है ( न्यायकुसुमांजलि, १1१० ) । [ अभाव को स्वरूपहीन होने के कारण समवायि कारण मत समझिये, किन्तु उसे निमित्त कारण तो मान ही सकते हैं । इसमें कोई भी बाधा नहीं है । इस प्रकार उक्त पाँच प्रकारों में से किसी के द्वारा स्वतः प्रामाण्य की निरुक्ति नहीं हो पाती, अतः विवश होकर हमें परतः प्रामाण्य ही स्वीकार करना पड़ता है । अनुमान भी इसके लिए प्रमाण हो सकता है - ]
इसके लिए तर्क ( Argument ) इस रूप में हो सकता है - 'प्रस्तुत विवादग्रस्त प्रामाण्य ज्ञान के सामान्य कारणों के अतिरिक्त किसी दूसरे कारण ( दोषाभाव ) के अधीन है, क्योंकि यह कार्य होने के साथ-साथ ज्ञानविशेष पर आश्रित है, जैसे अप्रामाण्य ।' [ इस प्रकार उत्पत्ति के विषय में प्रामाण्य को परतः सिद्ध करके अब ये नैयायिक ज्ञप्ति के विषय में भी इसे परतः सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं - ] 'प्रामाण्य को बाह्य साधन ( जैसे - अनुमान) से ही जानते भी हैं, क्योंकि जिस वस्तु का परिचय ( अभ्यास ) पहले से नहीं रहता है उसके विषय में संशय उत्पन्न होता है, जैसे अप्रामाण्य के विषय में होता है । [ अमाण्य को तो मीमांसक भी परत: ही मानते हैं । जैसे किसी अज्ञात मार्ग पर जाते-जाते कोई व्यक्ति जब जल देखता है तब सोचता है कि यह ज्ञान प्रमा है या नहींतात्पर्य यह कि संशय में पड़ जाता है। जब पास जाता है तब पहले से उत्पन्न जल - ज्ञान को तब प्रमा कहता है जब उससे सफल प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह पूर्वज्ञान अप्रमा है - इस प्रकार अनुमान से प्रामाण्य का ज्ञान होता है । यदि प्रामाण्य ज्ञान को सामान्य रूप से ज्ञात करानेवाले कारणों से ही ज्ञात हो जाता तो ज्ञानोत्पत्ति के बाद ही आन्नर प्रत्यक्ष से ज्ञान मालूम हो जाता तथा उसी में रहनेवाला प्रामाण्य भी ज्ञात ही हा जाना - संशय उत्पन्न होने का अवकाश ही कहाँ था ? ]