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जैमिनि-दर्शनम्
( १२ क. शप्ति विषयक स्वतः प्रामाण्य की सिद्धि )
तथा प्रमाज्ञप्तिरपि ज्ञानज्ञापकसामग्रीत एव जायते । न च संशयानुदयप्रसङ्गो बाधक इति युक्तं वक्तुम् । सत्यपि प्रतिभा सपुष्कलकारणे प्रतिबन्धकदोषादिसमवधानात्तदुपपत्तेः : । किं च तावकमनुमानं स्वतः प्रमाणं न वा ? आद्येऽकान्तिकता । द्वितीये तस्यापि परतः प्रामाण्यमेवं तस्य तस्यापीत्यनवस्था दुरवस्था स्यात् ।
इसी तरह प्रमा की ज्ञप्ति ( प्रामाण्य का ज्ञान ) भी ज्ञान के बोधक करण से ही उत्पन्न होती है ( किसी बाह्य अनुमानादि करणों से नहीं ) । ऐसा भी कहना युक्ति युक्त नहीं है कि संशय नाम की कोई चीज न रहने के कारण ऐसी विचारसरणि रखने पर बाधा पड़ेगी । संशय की सिद्धि वहीं होती है जहाँ यद्यपि ज्ञान ( प्रतिभास ) को उत्पन्न करनेवाले सभी कारण विद्यमान हों, तथापि कुछ प्रतिबन्धक कारणों- जैसे दोष आदि की भी साथसाथ ही सत्ता रहे ।
अच्छा, अब यह कहें कि आप का ( उदयन का ) उक्त अनुमान अपने आप में प्रमाण है या नहीं ? यदि स्वतः प्रमाण है तो [ आपके द्वारा प्रामाण्य को परतः माने जाने का नियम ] व्यभिचरित होगा ( एकान्त रूप से प्रतिष्ठित नहीं होगा क्योंकि आप दोनों ओर प्रामाण्य को ले चलेंगे ) । अब, यदि स्वतः प्रमाण नहीं मानते हैं तो उसकी सिद्धि के लिए कोई दूसरा प्रमाण देना होगा, फिर उस अनुभव की सिद्धि के लिए भी दूसरा प्रामाण्य होगा - इस प्रकार अनवस्था होगी जिसका निवारण नहीं किया जा सकता । [ इस प्रकार हमें स्वतः प्रामाण्य ही सिद्ध मानना पड़ेगा । कोई चीज देखकर हम उसकी प्राप्ति के लिए तुरन्त दौड़ पड़ते हैं । यह नहीं सोचने लगते कि अनुमानादि से प्रामाण्य का निश्चय करें । यदि प्रामाण्य को परतः स्वीकार करेंगे तो प्रवृत्ति में शीघ्रता नहीं हो सकेगी। ]
( १३. प्रामाण्य का उपयोग प्रवृत्ति में नहीं होता - उदयन )
यदत्र कुसुमाञ्जला बुदयनेन झटिति प्रचुरप्रवृत्तेः प्रामाण्यनिश्चयाधीनत्वाभावमापादयता प्रण्यगादि - 'प्रवृत्तिच्छामपेक्षते । तत्प्राचुर्यं चेच्छाप्राचर्यम् । इच्छा चेष्टसाधनताज्ञानम् । तच्चेष्टजातीयत्वलिङ्गानुभवम् । सोऽपीन्द्रियार्थसन्निकर्षम् । प्रामाण्यग्रहणं तु न क्वचिदुपयुज्यते' इति ।
इस प्रसंग में न्यायकुसुमांजलि में ( उदयनाचार्य ने, मनुष्यों में शीघ्र तथा प्रचुर रूप से उत्पन्न होनेवाली प्रवृत्ति ( क्रिया ) को, प्रामाण्य - निश्चय के अधीन न रहने का प्रतिपादन करते समय, कहा है- ' प्रवृत्ति इच्छा की अपेक्षा रखती है । यदि प्रचुर रूप में प्रवृत्ति हुई तो समझें कि वहाँ इच्छा ही प्रचुर रूप में है । इच्छा उस ज्ञान की अपेक्षा रखती है जिससे कि ज्ञप्त वस्तुओं का बोध [ इच्छापूर्ति के ] साधन के रूप में होता है । यह