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सर्वदर्शनसंग्रहे
उसी अर्थ का शीघ्रतर बोध करने के लिए 'अथ व्याकरणम्' ही कहना चाहिए । 'अथ शब्दानुशासनम्' कहकर अक्षरों की संख्या में व्यर्थ की वृद्धि करते हैं । लेकिन ऐसा नहीं सोचना चाहिए । शब्दानुशासन नाम ( समाख्या ) अर्थ के अनुकूल ही रखा गया है। यह शास्त्र ( वैदिक शब्दों का अर्थ बतलाने के कारण ] वेदाङ्ग है, इसका प्रतिपादक करनेवाले प्रयोजन ( लक्ष्य ) का भी कथन साथ-ही-साथ हो जाता है । [ शब्दानुशासन कहने से न केवल व्याकरण-शास्त्र को प्रतीति होती है प्रत्युत व्याकरण के प्रयोजन-शब्दों के संस्कार-का भी बोध हो जाता है । व्याकरण कहने से इतना बोध नहीं होता । केवल शास्त्र का ही प्रतीति होती। ] यदि प्रयोजन का कथन नहीं किया जाय तो व्याकरण के अध्ययन की ओर अध्येताओं की प्रवृत्ति ही नहीं होगी।
ननु 'निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येतव्यः' इत्यध्येतव्यविधानादेव प्रवृत्तिः सेत्स्यति इति चेत्-मैवम् । तथा विधानेऽपि तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकप्रयोजनानभिधाने तेषां प्रवृत्तेरनुपपत्तेः। तथा हि-पुरा किल वेदमधोत्याध्येतारस्त्वरितं वक्तारो भवन्ति ।
अब यदि ऐसा कहें कि '[ ब्राह्मण को ] बिना किसी स्वार्थ के ( साक्षात् फल की आशा किये बिना ही, नित्यरूप से ) धर्म का तथा षडङ्ग वेद का अध्ययन करना चाहिए'- इस विधि में जो 'अध्येतव्य' शब्द है उसी के द्वारा अध्ययन की प्रवृत्ति होगी, तो हम उत्तरः देंगे कि ऐसी बात नहीं है। ऐसा विधान होने पर भी उस (शास्त्र) का एक प्रयोजन जो वेदाङ्ग होना है, उसे बतलाये बिना उनको प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए [ ऐसी बातें उन्हें कहनी चाहिए कि ] पहले वेद का अध्ययन करके लोग शीघ्र वक्ता बन जाते थे। [ यह वाक्य वेदाध्ययन की विधि का अर्थवाद विज्ञापन है जिससे लोग उस ओर प्रवृत्त हों । वैसे ही व्याकरण में इस तरह का विज्ञापन रहना चाहिए । 'शब्दानुशासन' शब्द में वह आकर्षण-शक्ति है ! अतः यही शब्द उपयुक्त है।]
वेदान्नो वैदिकाः शब्दाः सिद्धा लोकाच्च लौकिकाः।
तस्मादनर्थकं व्याकरणमिति । तस्माद्वेदाङ्गत्वं मन्यमानास्तदध्ययने प्रवृत्तिमकार्षुः । ततश्च इदानींतनानामपि तत्र प्रवृत्तिर्न सिध्येत् । सा मा प्रसाङ्क्षीदिति तदीयवेदाङ्गत्वप्रतिपादकं प्रयोजनमन्वाख्येयमेव ।
'वेदों से वैदिक शब्द सिद्ध हुए और लौकिक व्यवहार से लौकिक शब्द'-इसलिए व्याकरण को व्यर्थ समझकर, उसे केवल वेदाङ्ग मानकर ही उसके अध्ययन में पहले के लोग प्रवृत्ति प्रदर्शित करते थे। [ किसी विशेष प्रयोजन का ज्ञान उन्हें नहीं था, विधि के अनुसार चलते हुए वे अध्ययन कर जाते थे। ]' तो आजकल के लोगों को भी प्रवृत्ति नहीं ही होगी । ऐसी स्थिति न उत्पन्न हो जाय, इसलिए 'वह बेदाङ्ग है' इसका प्रतिपादन
१. उनकी प्रवृत्ति नैसर्गिक नहीं थी, बनानी पड़ती थी । विधि के अनुसार अपने जीवन के कार्यक्रम उन्हें निश्चित करने थे ।