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सर्वदर्शनसंग्रहे
कवर्ग, ह और विसर्ग का स्थान कंठ है । मुख के अन्तर्गत तालु आदि दूसरे स्थानों का संग्रह भी कंठ से ही हो गया है । अन्त में ॠ, टवर्ग, र ष का स्थान सिर ( मूर्धा ) है । इस प्रकार शब्दों के तीन स्थान हैं जहाँ वे टकराकर अभिव्यक्त होते हैं । ]
'वृषभ' शब्द के द्वारा प्रसिद्ध ( लौकिक ) वृषभ ( बेल ) का रूपक रखा गया है, क्योंकि दोनों ही वर्षण करते हैं ( / वृष ) । यहाँ ( शब्द- पक्ष में ) वर्षण का अभिप्राय है [ व्याकरण - शास्त्र का ] ज्ञान प्राप्त करके अनुष्ठान करना और उसका फलप्रद होना । 'रोरवीति' का अर्थ है 'शब्द करता है' ।
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रु = शब्द करना ।
यहाँ [ जो 'रोरवीति = शब्दं करोति' कहा, उसमें प्रयुक्त ] 'शब्द' शब्द के द्वारा इस पूरे प्रपंच (संसार) का अर्थ लिया गया । [ नित्य शब्द से ही यह पूरा संसार बना है, वही इसका प्रपंच अर्थात् विस्तार करता है । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की प्रथम कारिका में ही इसे स्पष्ट किया है जो आगे उद्धृत की जायगी ।
महान देव मनुष्यों में प्रवेश करते हैं । महान् देव अर्थात् शब्द । मर्त्य का अर्थ है मरण धर्मवाले मनुष्य, उनमें ही वह ( शब्द ) प्रवेश करता है । महान् देव अर्थात् परब्रह्म से समता ( सायुज्य ) का वर्णन किया गया है । ( महाभाष्य, पृ० ३ ) ।
विशेष -- इस ऋचा की प्रस्तुत व्याख्या का तात्पर्य यही है कि परब्रह्म के स्वरूप से से युक्त अन्तर्यामी शब्द मनुष्यों में प्रविष्ट है । व्याकरण- शास्त्र से उत्पन्न शब्दज्ञान रखकर जो प्रयोग किया जायगा तो मनुष्यों के सारे पाप नष्ट हो जायेंगे और वे अहंकार आदि की ग्रन्थियों को तोड़कर अपने अन्तरतम में विद्यमान शब्द ब्रह्म के साथ आत्यन्तिक रूप से संसक्त हो जायँगे । इस पहेली की तरह प्रतीत होनेवाली ऋचा की व्याकरणपरक व्याख्या तो पतंजलि ने की है, यास्क ने ( ? १३।७ ) इसकी यज्ञपरक व्याख्या की है जिसे सायण ने भी लिया है। राजशेखर ने इसका सहित्यिक अर्थ लिया है । भाष्यकार के नाम से उद्धरण देने पर भी माधवाचार्य ने मनमानी की है-अपनी इच्छा से भाष्य की पंक्तियों का परिवर्तन करते चले गये हैं ।
( ६० शब्द ही ब्रह्म है )
जगन्निदानं स्फोटाख्यो निरवयवो नित्यः शब्दो ब्रह्मेवेति हरिणामाणि ब्रह्मकाण्डे
६. अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं तदक्षरम् । विवर्ततेऽयं भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥
( वाक्यप० 111 ) इति ।
संसार का निदान ( मूल कारण Ultimate cause ), 'स्फोट' के नाम से प्रसिद्ध
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के
तथा अवयवों से रहित जो नित्य शब्द है वह ब्रह्म ही है । ऐसा ब्रह्मकाण्ड में कहा है--' आदि और अन्त से रहित, विकारशून्य
शब्द का तत्त्व ( Rea