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पाणिनि-दर्शनम्
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lity ) ही ब्रह्म है - वही संसार की विभिन्न वस्तुओं ( अर्थों ) के रूप में प्रतिभासित होता है तथा उसी से इस संसार की सारी प्रक्रियाएं होती हैं' ( वाक्यपदीय १०१ ) ।
विशेष - जिस प्रकार वेदान्त में संसार को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं उसी प्रकार यहाँ भी संसार शब्द-रूपी ब्रह्म का विवर्त ( मिथ्याप्रतीति ) है । इस दृष्टि से अनादि शब्द -ब्रह्म ( जिसे परा वाणी कह सकते हैं ) ही संसार का उपादान कारण है । शब्द-ब्रह्म शब्दभाव से तो विवृत्त होता ही है। उसके बाद में वह सत् ( Existent ) अर्थों के रूप में भी विवृत्त होता है । निष्कर्ष यह हुआ कि शब्द ब्रह्म से शब्द और अर्थ दोनों की उत्पत्ति होती है, यह पूरा संसार ही शब्द का रूप है । भर्तृहरि की यह मान्यता सेवागम के अनुसार है । उन्होंने कहा है
शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः ।
छन्दोभ्य एव प्रथममेतद्विश्वं व्यवर्तत ॥ ( ९।१२० )
कहने का अभिप्राय यह है कि यह यह जगत् शब्द का परिणाम ( परणत रूप ) है । संसार में जो कुछ भी देखते हैं वह शब्दब्रह्म का ही निवृत्त रूप या छाया है । ( ६. क पद-मेव की संख्या )
ननु नामाख्यातमेवेन पवद्वैविध्यप्रतीतेः कथं चातुविध्यमुक्तमिति चेत्मैवम् । प्रकारान्तरस्य प्रसिद्धत्वात् । तदुक्तं प्रकीर्णके
७. द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधाऽपि वा ।
अपोद्धत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ इति ॥
अब प्रश्न है कि नाम और आख्यात के भेद से दो प्रकार के पदों की प्रतीति होती है, आप चार प्रकार के पद कहाँ से लाते हैं ? ऐसी बात नहीं है, उनके दूसरे भेद भी प्रसिद्ध ही हैं । उसे प्रकीर्णकाण्ड में कहा है- 'जिस प्रकार कृति और प्रत्यय की कल्पना [ पद से पृथक् की जाती है यद्यपि पद में ही प्रकृति-प्रत्यय दोनों हैं ], उसी प्रकार वाक्यों से पृथक् करके ( अपोद्धृत्य ) पदों की कल्पना करके उसे लोगों ने दो, चार या पाँच भेदों में बांटा है ।' ( वा० प० ३|१|१ ) ।
| तब
विशेष -पद के अर्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्रीय दृष्टि से पद से अलग करके हम प्रकृति और प्रत्यय की कल्पना करते हैं । प्रकृति का अपना अर्थ होता है, प्रत्यय का भी - दोनों का समन्वय करके पदार्थ की प्राप्ति होती है । ठीक उसी तरह वाक्य का अर्थ जानने के लिए वाक्य में विद्यमान पदों की कल्पना वाक्ा से अलग करते उनके अर्थों पर विचार करके उन्हें कई भेदों में बांटते हैं । विभिन्न मत से पद के विभिन्न भेद हैं- पाणिनि ने 'सुप्तिङन्तं पदम् ' ( १|४|१४ ) कहकर पदों के दो ही भेद किये हैं । सुबन्त ( नाम जिसमें उपसर्ग और निपात भी हैं तथा तिङन्त लोग पद के चार भेद करते हैं-नाम, आख्यात (क्रिया), लोग इस सूची में कर्मप्रवचनीय को भी जोड़कर पद के
क्रिया ) यास्क तथा दूसरे
उपसर्ग और निपात । कुछ पांच भेद मानते हैं । कर्म