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सर्वदर्शनसंप्रहे
इत्यादि कथा प्रतिपद-पाठ की सामर्थ्यहीनता का प्रतिपादन करनेवाला अर्थवाद है । [ अर्थ - वाद का सामान्य अर्थ है स्तुति या निन्दा करनेवाले वाक्य जो किसी बात को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करें। यहाँ पर 'प्रतिपद-पाठ असंभव है' यही दिखाना है जिसे कथा के रूप में दिया गया है । ]
विशेष- - व्याकरण शास्त्र की यही विधि है कि विभिन्न लक्ष्यों की सिद्धि के लिए कुछ सामान्य लक्षण देते हैं तथा उनके अपवाद दिखाने के विशेष लक्षण देते हैं । सामान्य सूत्र को विशेष सूत्र दबा देता है। इसी प्रणाली से पार्णिने ने व्याकरण लिखा है । महाभाष्य के प्रथम आह्निक में इन समस्याओं पर बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है। ( ५. व्याकरण के अन्य प्रयोजन )
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नन्वत्येष्वप्यङ्गेषु सत्सु किमित्येतदेवाद्रियते ? उच्यते - प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम् । प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान्भवति । तदुक्तम् - ३. आसन्नं ब्रह्मणतस्य तपसामुत्तमं तपः । प्रथमं छन्दसामङ्गमाहुर्व्याकरणं बुधाः || ( दा० प० १११ ) इति । तस्माद् व्याकरणशास्त्रस्य शब्दानुशासनं भवति साक्षात्प्रयोजनम् । पारम्पर्येण तु वेदरक्षादीनि । अत एवोक्तं भगवता भाष्यकारेण- रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् ( पा० म० भा० पस्पश ) इति ।
अब प्रश्न हो सकता है कि जब दूसरे वेदाङ्ग भी विद्यमान हैं तो ( इस व्याकरणशास्त्र ) का ही इतना अधिक आदर क्यों किये जा रहे हैं ? उत्तर होगा कि छहों वेदाङ्गों में व्याकरण ही प्रधान है और प्रधान विषय में किया गया परिश्रम ही सफल होता है । यही कहा है – 'यह उस [ परम ] ब्रह्म के निकट है तथा तपस्याओं में सबसे उत्तम तपस्या है; विद्वान् लोग व्याकरण को वेदों का प्रथम ( प्रधान ) अंग कहते हैं ।' ( वाक्यपदीय १।११ ) ।
इसलिए व्याकरण - शास्त्र का साक्षात् ( सीधा ) प्रयोजन है शब्दों का अनुशासन करना ( संस्कार बालाना ) । परम्परा से ( परोक्ष रूप से, घुमा-फिरा कर ) वेद की रक्षा आदि भी [ इसके प्रयोजन ही ] हैं । इसीलिए भगवान् भाष्यकार ने कहा है- रक्षा, ऊह, आगम, लघु तथा असन्देह - ये [ व्याकरण शास्त्र के ] प्रयोजन हैं । ( महाभाष्य, पृ० १ ) ।
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विशेष-व्याकरण के इन प्रयोजनों का उद्धरण कितने ही स्थानों पर दिया जाता है | अतः उन्हें अच्छी तरह जान लेना चाहिए ।
( ? ) रक्षा ( Preservation ) - वेदों की रक्षा करने के लिए व्याकरण का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है । वेदों में बहुत से ऐसे-ऐसे रूप हैं जो लौकिक भाषा में