________________
४८६
सर्वदर्शनसंग्रहेज्ञान भी उस लिंग के अनुभव की अपेक्षा करता है जिस (लिंग ) के द्वारा, इष्ट वस्तु प्रस्तुत वस्तु की जाति की है, ऐसा बोध होता है । यह अनुभव भी इन्द्रियों और वस्तुओं के निकर्ष पर भी निर्भर करता है । प्रामाण्य का ग्रहण करने की आवश्यकता तो कहीं पर है ही नहीं । [ प्रामाण्य-ग्रहण करने से प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती। ]'
( १३ क. इसका खण्डन ) __ तदपि तस्करस्य पुरस्तात्कक्षे सुवर्णमुपेत्य सर्वाङ्गोद्घाटनमिव प्रति
ति । यतः समीहितसाधनताज्ञानमेव प्रमाणतयावगम्यमानमिच्छां जनयत्यत्रैव स्फुट एव प्रामाण्य ग्रहणस्योपयोगः । किं च क्वचिदपि चेन्निविचिकत्सा प्रवृत्तिः संशयादुपपद्येत, तहि सर्वत्र तथाभावसम्भवात् प्रामाण्यनश्चयो निरर्थकः स्यात् ।
जैसे कोई चोर सामने ही अपनी काँख में सोना चुराये और पूछने पर समूचा शरीर [ड़कर दिखला दे उसी तरह आपकी ये बातें भी हैं, क्योंकि इष्ट वस्तु का [ इच्छापूर्ति ] साधन के रूप में बोध करानेवाला ज्ञान प्रमाण-रूप में अवगत होता है, वही इच्छा को पन्न करता है-यहीं पर तो त्रामाण्य-ग्रहण की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। इसके तरिक्त, यदि कहीं भी संशय से उत्पन्न निश्चित प्रवृत्ति की सिद्धि हो गई (= संशय से पन्न प्रवृत्ति का एक भी उदाहरण निश्चित कर लिया गया ), तो सभी स्थानों पर वैसा होने की सम्भावना होगी एवं प्रामाण्य का निश्चय करना व्यर्थ सिद्ध होगा। [ संशय कारण कहीं भी प्रवृत्ति नहीं होगी क्योंकि अनिश्चित वस्तु में सत्ता ही दुर्लभ है। ]
तथोक्तम्-अनिश्चितस्य सत्त्वमेव दुर्लभमिति । यदि सत्त्वं सुलभ तदा प्रामाण्य दत्तजलाञ्जलिकं भवेदित्यलमतिप्रपञ्चैन । यस्मादुक्तम्१३. तस्मात्सद्बोधकत्वेन प्राप्ता बुद्धेः प्रमाणता । __अर्थान्यथात्वहेतूत्थदोषज्ञानादपोद्यते ॥ इति । वैसा ही कहा गया है—'अनिश्चित वस्तु की सत्ता ही दुर्लभ होती है ।' यदि उसको • आसानी से पायी जा सकती तब तो प्रामाण्य नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं [प्रामाण्य को ही जलांजलि दे दी जाय—स्वतः और परतः का प्रश्न ही समाप्त हो ] । अधिक विस्तार करने से कोई लाभ नहीं है । चूंकि कहा गया है'इसलिए सद् वस्तु के बोधक के रूप में जो बुद्धि का प्रामाण्य देखा जाता है वह उस ज्ञान से ही नष्ट हो जाता है जिस दोष-ज्ञान की उत्पत्ति वस्तु की अन्यथा-प्रतीति से सीपी की चाँदी के रूप में प्रतीति ) से होती है ।' [प्रामाण्य सद्बस्तु का बोध ता है। किन्तु जब वस्तु की प्रतीति दूसरे रूप में होती है तब उक्त प्रामाण्य का दि हो जाता है क्योंकि ऐसी दशा में अप्रामाण्य हो जाता है । सामान्य रूप से प्रामाण्य तीति होती है जब कि अपवाद के रूप में अप्रामाण्य अतिा है।]