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सर्वदर्शनसंग्रहेहै, इसलिए उपाधि के रूप में भी प्रामाण्य को लेने पर इसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यही आगे कहते हैं।] ___ स्मृति के स्वभाव से जो पृथक् हो, वेसे ज्ञान की बाधा का अत्यन्ताभाव ही प्रामाण्य या उपाधि है ( यदि आप प्रामाण्य की उपाधि मानते हैं )। उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अत्यन्ताभाव को सभी लोग नित्य मानते हैं। इसलिए जाति [ के रूप में भी प्रामाण्य को स्वीकार करने पर उस ] की उत्पत्ति नहीं हो सकती है [क्योंकि जाति भी नित्य ही होती है।]
नापि चतुर्थः। ज्ञानविशेषो ह्यप्रमा। विशेषसामग्र्यां च सामान्यसामग्री अनुप्रविशति शिशपासामग्र्यामिव वृक्षसामग्री। अपरथा तस्याकस्मिकत्वं प्रसज्येत । तस्मात्परतस्त्वेन स्वीकृताप्रामाण्यं विज्ञानसामान्यसामग्रीजन्याश्रितमित्यतिव्याप्तिरापद्येत।
(४) चौथा विकल्प भी स्वीकार्य नहीं है। अप्रमा ( अयथार्थ अनुभव ) भी एक विशेष प्रकार का ज्ञान ही है। [ वस्तुतः सीपी रहने पर भी दूषित इन्द्रिय के कारण जो रजत की प्रतीति हो जाती है, यह भी ज्ञान ही है। यह भी ज्ञान की सामान्य सामग्री ( इन्द्रिय, प्रकाश आदि ) से ही उत्पन्न होता है। ] ज्ञान की सामान्य सामग्री को उसकी विशेष सामग्री ( साधनों) में अन्तर्भुक्त कर लिया जाता है। जैसे-वृक्ष की सामग्री ( सामान्य साधन ) को शिंशपा की सामग्री में ही गिन लेते हैं। [ वृक्ष के सामान्य कारण हैं-मिट्टी, जल, हवा, धूप, बीज आदि । एक विशेष वृक्ष शिशपा है, उसमें अन्य कारणों के साथ विशेष प्रकार का (शिंशपा का ) बीज भी कारण-सामग्री में आता है। यह भी एक प्रकार का बीज ही है। यदि इसे बीज न मानें] तो शिशपा वृक्ष की उत्पत्ति बिना बीज के आकस्मिक रूप से होती है, ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। [ फल यह होगा कि ] अयथार्थ ज्ञान भी ज्ञान की सामान्य सामग्री से उत्पन्न एक विशेष प्रकार का ज्ञान बन जायगा, जब कि आप ( मीमांसक लोग ) अयथार्थ ज्ञान अर्थात् अप्रामाण्य को परतः के रूप में स्वीकार करते हैं, अतः अतिव्याप्ति-दोष हो जायगा। [प्रामाण्य लक्षण अप्रामाण्य को भी अपने में समेट लेगा।
विशेष-अप्रमा एक ज्ञान-विशेष है। विशेष कारणों में सामान्य कारणों का अन्तर्भाव हो जाता है। सामान्य कवि में जो गुण हैं वे विशेष कवि में भी होते ही हैं । अतः ज्ञान-विशेष में ज्ञान-सामान्य आ गया। चौथे विकल्प के अनुसार ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञान-विशेष पर प्रामाण्य आधारित रहता है। तब तो अप्रमा भी प्रामाण्य ही की कोटि में आ गयी, क्योंकि यह भी ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञान-विशेष पर ही आधारित है, यह सिद्ध किया गया है । पांचवें विकल्प में 'मात्र' शब्द रख देने से उक्त दोष का परिहार हो जाता है । इसे आगे कहते हैं ।