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सर्वदर्शनसंग्रहे
फिर भी कुछ लोग कह सकते हैं कि [ शब्दों के व्यापक होने के कारण सभी शब्द ] एक ही साथ श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बद्ध हो जायंगे इसलिए संस्कारक ( व्यंजक ध्वनि ) और संस्कार्य ( शब्द ) का नियमित सम्बन्ध नहीं मिल सकता, ऐसा अनुमान होता है । [ अनुमान इस रूप में होगा-कोई शब्द किसी निश्चित संस्कारक के द्वारा संस्कृत नहीं होता, क्योंकि दूसरों के साथ भी उसका वही सम्बन्ध रहता है । किन्तु यहाँ पर हेतु सत् (शुद्ध ) नहीं है। ] यहाँ आत्मा में अनेकान्तिक ( सव्यभिचार ) हेतु है-सो, अधिक झगड़ा करना बेकार है । [ सभी जीवात्माएं विभु हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं फिर भी चाक्षुष-प्रत्यक्ष आदि से ज्ञान प्राप्त करने के समय एक ही आत्मा संस्कृत होती है, सभी जीवात्माएं नहीं।] ___अतः सारी शंकाओं के कलंकांकुर का नाश हो जाने पर, अपौरुषेय ज्ञान के रूप में, धर्म के विषय में, वेद की प्रामाणिकता अपने आप में ही सिद्ध है-यह निश्चित हुआ।
(प्रामाण्यवाद का निरूपण ) स्यादेतत् । १०. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।
नैयायिकास्ते परतः, सौगताश्चरमं स्वतः ॥ ११. प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यं, वेदवादिनः।
प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः परतश्चाप्रमाणताम् । इति वादिविवाददर्शनात्कथंकारं स्वतः धर्मे प्रामाण्यमिति सिद्धवत्कृत्य स्वीक्रियते ? ___ अस्तु, ऐसा ही हो । परन्तु निम्नलिखित रूप में वादियों को विवाद करते हुए देखकर भी आप वेद को धर्म के विषय में अपने आप में प्रमाण मानते हुए इसे निश्चितजैसा क्यों समझ रहे हैं ? "प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को सांख्य लोग स्वतः मानते हैं। नैयायिक लोग दोनों को परतः मानते हैं । बौद्ध लोग अप्रामाण्य को स्वतः तथा प्रामाण्य को परतः कहते हैं जब कि वेदवादी ( मीमांसक ) लोग प्रामाण्य को स्वतः तथा अप्रामाण्य को परतः मानते हैं।"
विशेष-यथार्थ अनुभव के रूप में जो प्रमा या प्रमाण होता है उसी में रहनेवाले धर्म को प्रामाण्य ( या प्रमाणत्व या प्रमात्व ) कहते हैं। इसी तरह अयथार्थ अनुभव में रहनेवाले धर्म को अप्रामाण्य कहते हैं । अब प्रश्न है कि किसी वस्तु के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का कारण क्या है ? कारण खोजने के विषय में विभिन्न दार्शनिक विवाद करते हैं-उनके वाद को ही प्रामाण्यवाद के नाम से पुकारते हैं । यह दो प्रकार का हो सकता है। एक तो वह जिसमें कारण को प्रामाण्य उत्पादक समझें और दूसरा वह जिसमें कारण को इस का ज्ञापक ( बतलानेवाला ) समझें । इस विवाद का मूल यही है कि कुछ लोग प्रामाण्य का कारण स्वयं (=प्रामाण्य, उस पर आश्रित ज्ञान तथा उसके लिए