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जैमिनि-दर्शनम्
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इसो विनियोग विधि की सहायता करने के लिए श्रुति आदि छह प्रमाण हैं । जिस समय यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि मन्त्र के देवता, हवि के द्रव्य या किसी अन्य वस्तु ( अंग ) का विनियोग कहाँ पर हो तो इसका निर्णय ये छह प्रमाण ही करते हैं । जब दो प्रमाण एक साथ आ रहे हों तो पहले वाला ही मान्य होता है । अब हम इनका पृथक्-पृथक् प्रतिपादन करें ।
( १ ) श्रुति - प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखनेवाले शब्द को श्रुति कहते हैं । इससे सर्वत्र निर्णय किया जाता है । इसके मूलत: दो भेद हैं- साक्षात् पढ़ी गई तथा अनुमान से सिद्ध ( सीधे पढ़ी गई श्रुति के उदाहरण में 'ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते' दे सकते हैं । यह श्रुति का ही वाक्य है जिसमें बतलाया गया है कि इन्द्र देवता से सम्बद्ध ऋचा का अङ्ग के रूप में प्रधान गार्हपत्य अग्नि की उप- स्थापना में विनियोग होगा । अनुमान से सिद्ध श्रुतियों के उदाहरण में – 'स्योनं ते' इति पुरोडाशस्य सदनं करोति' है । यह वाक्य श्रुति में कहीं नहीं मिलता, किन्तु 'स्योनं ते सदनं कृणोमि' ( तै० ब्रा० ३।६ ) इस मन्त्र के अर्थ को देखकर उसी लिंग से मन्त्र के अर्थ के अनुसार मन्त्र का विनियोग करनेवाली श्रुति का अनुमान करते हैं । उसी तरह का विनियोग भी होता है ।
(२) लिंग - किसी शब्द के जो अर्थ प्रकाशन की सामर्थ्य रहती है उसे ही लिंग कहते हैं । श्रुति का अनुमान करानेवाला लिंग दो प्रकार का है— सीधा दिखलाई पड़ने वाला तथा अनुमान के द्वारा ज्ञात । सामर्थ्य का अर्थ रूढ़ि है, अतः लिंग - प्रमाण में रूढ़ि ( परम्परागत शब्दार्थ ) का अभिधान होता है, जबकि समाख्या में यौगिक शब्द का अर्थ देखा जाता है । उदाहरण के लिए 'बहिर्देव सदनं दामि' ( हे देव ! मैं तुम्हारे स्थान के लिए कुश काटता हूँ ) – यह मन्त्र कुशलवन ( छेदन ) रूपी अङ्ग है । बर्हिषु शब्द कुश के अर्थ में ही रूढ़ है, अतः अन्य तृणों के काटने का प्रसंग उत्पन्न नहीं होता । उसी प्रकार - देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्ने जुष्टं निर्वपामि ( तै० सं० ११११४ ) यह एक ही वाक्य है, जिनमें योग्यता, आकांक्षा आदि के कारण परस्पर अन्वित पदों का समूह है । इसमें प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है कि 'देवस्य त्वा' जुष्टम्' आदि भाग की सामर्थ्य निर्वाप -अर्थ का प्रकाशन करने की है। वाक्य आदि की अपेक्षा लिंग प्रबलतर होता है । 'स्योनं ते सदनं कृणोमि' इस मन्त्र को पुरोडाश स्थापनरूपी प्रधान कर्म के अङ्ग के रूप में जानते हैं । यह ज्ञान 'सदनं कृणोमि' इस लिंग को देखकर ही होता है, वाक्य से नहीं ।
इस वाक्य में 'अग्नये
(३) वाक्य - अङ्ग ( शेष ) और प्रधान ( शेषी ) बोधक पदों का एक साथ उच्चारण करना ( समभिव्याहार ) वाक्य है । योग्यता, आकांक्षा आदि इसमें रहती है । वाक्य उपर्युक्त लिंग का अनुमान करता है । उदाहरण में 'समिधो यजति' दे सकते हैं । इसमें इष्ट-विशेष का निर्देश नहीं किया गया है, अतः आकांक्षा होती है कि समिधाओं के