________________
जैमिनि-दर्शनम्
-
कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि यह अनुमान तो 'यह वही गकार है' – इस तरह की प्रत्यभिज्ञा ( Recognition ) के प्रमाण से खण्डित हो जायगा । [ प्रत्यभिज्ञा एक तरह का प्रत्यक्ष है, जिसमें इन्द्रियों की सहायता से संस्कार के द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है । - 'यह वही गकार है' कहने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गकार अनित्य नहीं है । यदि उसकी सत्ता नहीं है, तो कुछ देर के बाद भी कैसे प्रतीत हुआ ? ]
[ नेयायिक कहते हैं कि ] यह सोचना बिल्कुल व्यर्थ है । जैसे काट देने पर फिर जनमनेवाले केश में या टूट जाने पर फिर खिलनेवाले कुन्द के फूल में प्रत्यभिज्ञा समानता के कारण विषय का ग्रहण कर लेती है [ कि यह वही केश या कुन्द- पुष्प है - यद्यपि केश या फूल वही नहीं, किन्तु वस्तु की समानता से प्रत्यभिज्ञा होती है । वैसे ही यहाँ भी प्रत्यभिज्ञा हुई, ] अत: प्रस्तुत प्रसंग में वह बाधक नहीं बन सकती ।
४६७
नन्वशरीरस्य परमेश्वरस्य ताल्वादिस्थानाभावेन वर्णोच्चारणासम्भवात्कथं तत्प्रणीतत्वं वेवस्य स्यादिति चेत्-न तद्रम् । स्वभावतोऽशरीरस्यापि तस्य भक्तानुग्रहार्थं लीलाविग्रहग्रहणसम्भवात् । तस्माद्वेदस्यापौरुषेयत्ववाचोयुक्तिर्न युक्तेति चेत्- ।
अब कोई यह पूछ सकता है कि परमेश्वर के पास तालु आदि उच्चारण-स्थान नहीं हैं, इसलिए वे वर्णों का उच्चारण नहीं कर सकते । फिर वेदों को उनके द्वारा रचित आप कैसे मानते हैं ? यह प्रश्न उचित नहीं है । यद्यपि 'परमेश्वर स्वभावतः शरीररहित है' किन्तु वे भक्तों पर कृपा करने के लिए अपनी लीला से विग्रह ( शरीर, इन्द्रिय आदि ) धारण कर सकते हैं। इस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानने के तर्क ( वाचोयुक्ति ) असंगत है ।
( ८. वेद अपौरुषेय हैं- सिद्धान्त-पक्ष )
तत्र समाधानमभिधीयते । किमिदं पौरुषेयत्वं सिसाधयिषितम् ? पुरुषादुत्पन्नत्वमात्रं यथास्मदादिभिरहरहरुच्चार्यमाणस्य वेदस्य ? प्रमाणान्तरेणार्थमुपलभ्य तत्प्रकाशनाय रचितत्वं वा यथास्मदादिभिरेव निबध्यमानस्य प्रबन्धस्य ? प्रथमे न विप्रतिपत्तिः ।
अब हम सबों का समाधान करते हैं । यह पौरुषेयत्व सिद्ध करने की जो इच्छा करते हैं, वह पौरुषेयत्व है क्या चीज ? जैसे हम लोग प्रतिदिन वेद का उच्चारण करते हैं, क्या उसी प्रकार पुरुष से केवल उत्पन्न होना ही पौरुषेयत्व है ? अथवा जैसे हम लोग प्रबन्ध की रचना करते हैं, उसी तरह दूसरे प्रमाणों से विषय का ग्रहण करके ( तथ्य-संग्रह
करके ) उसके प्रकाशन के लिए रचना करना ही पौरुषेयत्व है ? करते हैं तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं, [ क्योंकि इस दशा में हुए भी हमारे स्वर-में-स्वर मिलाकर यह स्वीकार करते ही हैं
यदि पहला पक्ष स्वीकार पौरुषेयत्व स्वीकार करते
कि वेद ईश्वर की रचना