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सर्वदर्शनसंग्रहे
नहीं है । जैसे वेदों का हमलोग उच्चारण करते हैं वैसे ही ईश्वर ने भी किया था । इसका अर्थ है कि वेद पहले से थे, ईश्वर ने केवल उच्चारण किया । ]
द्वितीये किमनुमानबलात्तत्साधनमागमबलाद्वा ? नाबः। मालतीमाधवादिवाक्येषु सव्यभिचारत्वात् । अथ प्रमाणत्वे सतीति विशिष्यत इति चेत् तदपि न विपश्चितो मनसि वैशद्यमापद्यते। प्रमाणान्तरागोचरार्थप्रतिपादकं हि वाक्यं वेदवाक्यम् । तत्प्रमाणान्तरगोचरार्थप्रतिपादकमिति साध्यमाने मम माता वन्ध्येतिवद् व्याघातापातात् ।
दूसरे विकल्प को लेने पर क्या उक्त तथ्य की सिद्धि आप अनुमान के बल से करते हैं या आगम (शब्द) प्रमाण के बल से ? अनुमान-प्रमाण के बल से तो नहीं कर सकते, क्योंकि वेसी दशा में मालतीमाधव ( भवभूति-रचित एक नाटक ) आदि वाक्यों के ग्रन्थों से वाक्यों में इसका व्यभिचार होगा। [ यदि प्रमाणान्तर से अर्थों का संग्रह करके ईश्वर ने वेद की रचना की है तो मालतीमाधव के कपोलकल्पित वाक्यों को प्रामाणिक मानना पड़ेगा । यहाँ पर सव्यभिचार नामक हेत्वाभास है । ऊपर जो अनुमान पूर्वपक्षियों ने दिया है कि वेदवाक्य वाक्य होने के नाते आप्त पुरुष के रचित हैं जैसे मनु आदि के वाक्य,इसमें वाक्यत्व हेतु है, पौरुषेयत्व साध्य है और पौरुषेयत्व का प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ है प्रमाणान्तर से वस्तु का ग्रहण करके उसकी अभिव्यक्ति के लिए रचना करना। मालतीमाधव में कथावस्तु काल्पनिक होने के कारण प्रमाणान्तर से सिद्ध नहीं की गई है। इस प्रकार मालतीमाधव में साध्य का अभाव है, फिर भी वाक्यत्व की वृत्ति हो जाती है । अतः 'वाक्यत्व' हेतु सव्यभिचार है, असत् है। ]
अब यदि 'प्रमाण होने पर' ( =प्रामाणिक वाक्य होने के कारण–पूरा हेतु ) ऐसा विशेषण लगा दें तो भी यह विद्वानों के मन को सन्तुष्ट नहीं ही कर सकेगा। [ मालतीमाधव के उपर्युक्त दोष-व्यभिचार-की निवृत्ति के लिए यह विशेषण लगाया गया है। उपर्युक्त रीति से मालतीमाधव के वाक्यों को वाक्य भले ही कह सकते हैं किन्तु जब 'प्रामाणिक वाक्य' ऐसा नियम लगा देंगे तो मालतीमाधव में व्यभिचार नहीं हो सकेगा। पर यह भी ठीक नहीं है ] । कारण यह है कि वेद के वाक्यों का सर्वमान्य लक्षण है कि जो वाक्य दूसरे किसी भी प्रमाण से न प्रतीत होनेवाले विषयों का प्रतिपादन करे वही वेदवाक्य है। अब यदि आप उपर्युक्त रीति से इसे अन्य प्रमाणों के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का प्रतिपादन करने लगें तो वैसा ही व्याघात ( आत्मविरोध Self-contradicstion ) होगा, जैसे कोई कहे कि मेरी माता बन्ध्या है।
(८. क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन ) किं च परमेश्वरस्य लीलाविग्रहपरिग्रहाभ्युपगमेऽप्यतीन्द्रियार्थदर्शनं न संजाघटीति । देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्रहणोपायाभावात् । न च तच्चा