________________
४६६
सर्वदर्शनसंग्रहे
लेंगे ? पूर्वपक्षी कहते हैं कि वास्तव में दोनों अनुमान आभासमात्र हैं, क्योंकि दोनों में ही हेतु अप्रयोजक है । 'जो-जो अध्ययन है वह सब गुर्वध्ययन के बाद ही होगा' - इस नियम की स्थापना में कोई हेतु नहीं दिखलाई पड़ता । लिखित पाठ करने या पहले-पहल प्रकाशित करने में तो गुर्वध्ययन की अपेक्षा नहीं ही रहती है । ] अत: श्लोकवार्तिक में दिया गया अनुमान हमारी बात के विरुद्ध जाने का साहस नहीं कर सकता । ] ननु तत्र व्यासः कर्तेति स्मयंते
को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् ।' इत्यादाविति चेत् — तदसारम् ।
- 'ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||
( ऋ० १०/९०1९ )'
इति पुरुषसूक्ते वेदस्य सकर्तृकताप्रतिपादनात् ।
अब आप कह सकते हैं कि वहाँ ( महाभारत में ) व्यास का स्मरण कर्ता के रूप में किया जाता है, जैसे इस श्लोक में - 'पुण्डरीकाक्ष ( नारायण के अवतार व्यास ) के अलावे महाभारत का रचयिता कौन हो सकता है ?' इस उक्ति में भी कोई दम नहीं । पुरुषसूक्त (ऋ० १०।९० ) में भी तो वेद के सकर्तृक होने का प्रतिपादन किया गया है
" ऋग्वेद, सामवेद उत्पन्न हुए, उससे छन्द भी निकले तथा यजुर्वेद भी उससे उत्पन्न हुआ ।' (ऋ० १०१९०१९ ) । [ यदि महाभारत के रचयिता का स्मरण किया जाता है, तो वेद के रचयिता भी तो प्रतिपादित ही हैं । ]
( ७ क. पौरुषेयसिद्धि का दूसरा रूप )
किं चानित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाद् घटवत् । नन्विदमनुमानं स एवायं गकार इति प्रत्यभिज्ञाप्रमाणप्रतिहतमिति चेत् — तदतिफल्गु । लूनपुनर्जातकेशकुन्दादाविव प्रत्यभिज्ञायाः सामान्यविषयत्वेन बाधकत्वाभावात् ।
[ पूर्वपक्षी नेयायिक आगे कहते हैं कि ] इसके अतिरिक्त भी; 'शब्द अनित्य है, क्योंकि सामान्य से युक्त होने पर हम लोगों के बाह्येन्द्रियों से ग्राह्य है, जैसे घट ।' [ शब्द में शब्दत्व है तथा उसके द्वारा व्याप्य कत्व, खत्व आदि जातियाँ भी हैं । वेदों को अपौरुषेय मानने के लिए उन्हें नित्य मानना जरूरी है, जैसा कि मीमांसक शब्द को नित्य मानते भी हैं, किन्तु पूर्वपक्ष से नैयायिक शब्दों को अनित्य मानकर वेद की पौरुषेयता सिद्ध करेंगे । यह अनुमान उसी के प्रसंग में दिया गया है । ]
१. तुलनीय - कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं विभुम् ।
कोऽन्यो हि भुवि मैत्रेय महाभारतकृद्भवेत् ॥ ( वि० पु० ३२४|५ )