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जैमिनि-दर्शनम्
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अलावे और कोई जान ही नहीं सकता । [ संसार में सर्वज्ञ कोई भी नहीं है, अतः विवश
होकर वेदों को पौरुषेय ही स्वीकार करना पड़ेगा । ]
यही नहीं, वेदों को पौरुषेय मानने के लिए प्रमाण भी है
- ( १ ) वेद के वाक्य पौरुषेय हैं,
क्योंकि ये वाक्य हैं, जैसे कालिदासादि के वाक्य ।
( २ ) वेद के वाक्य आप्त ( यथार्थवक्ता ) के द्वारा रचे गये हैं, क्योंकि ये प्रामाणिक वाक्य हैं, जैसे मनु आदि के वाक्य |
ननु -
४. वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा ॥
( श्लो० वा० ७।३६६ ) इत्यनुमानं प्रतिसाधनं प्रगल्भत इति चेत् — तदपि न प्रमाणकोटि प्रवेष्टुमीष्ट ।
५. भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । भारताध्ययनत्वेन साम्प्रताध्ययनं यथा ॥
इत्याभाससमानयोगक्षेमत्वात् ।
अब प्रश्न हो सकता है कि 'वेद का सम्पूर्ण अध्ययन पहले से गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वेदाध्ययन दोनों ही दशाओं में एक ही रहता है [ जैसे पहले का अध्ययन ] वैसे ही आज का अध्ययन [ इससे परम्परा की अविच्छिन्नता मालूम पड़ती है ] - श्लोकवार्तिक में दिये गये इस अनुमान की, जिसमें पूर्वपक्षी के विरुद्ध साध्य को सिद्ध करने की सामर्थ्य है, प्रबलता होगी । [ मीमांसक लोग कहते हैं कि वेद का अध्ययन शिष्य गुरु से करता है, उसके पूर्व भी तो गुरु ने अध्ययन किया था । यह क्रम चलता ही रहा है । कोई अध्ययन ऐसा नहीं जो गुर्वध्ययन के बिना ही हुआ हो । यदि पौरुषेय-पक्ष स्वीकार करते हैं तो वेद के रचयिता पुरुष के द्वारा किया गया वेदाध्ययन तो बिना गुर्वध्ययन के ही सिद्ध होगा जो असंगत है । अतः हमें वेदों को अपौरुषेय ही मानना पड़ेगा, क्योंकि सारे अध्ययन गुर्वव्ययन के बाद होते हैं । इस अनुमान से पूर्वपक्षी की बातों का खण्डन होता है, अत: यह 'प्रतिसाधन' ( प्रतिकूल सिद्धि करनेवाला ) अनुमान है । ]
यह प्रश्न प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता, क्योंकि निम्न रूप से प्रतीत होनेवाले अनुमान से इस अनुमान में कोई अन्तर नहीं । ( दोनों का योगक्षेम अर्थात् जोवन एक ही तरह का है ) – 'महाभारत का सारा अध्ययन गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि महाभारत का अध्ययन है, जैसा पहले वैसा ही आज का अध्ययन' - [ उक्त अनुमान की तुलना में ही यह अनुमान दिया गया है तो क्या महाभारत को भी आप अपौरुषेय ही मान
३० स० सं०