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सर्वसनसंग्रहे
'तेन प्रोक्तम्' ( उन्होंने प्रवचन किया ४।३१०१ ) इस सूत्र के रहने पर भी काठक (कठ ऋषि के द्वारा प्रोक्त विषयों को पढ़नेवाले ), कालाप ( कलापी ऋषि के प्रोक्त विषयों को पढ़ने वाले ), तैत्तिरीय ( तित्तिरि... ) आदि यौगिक शब्दों की सिद्धि उस ऋषि के द्वारा संचालित अध्ययन के सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में होती है, उसी प्रकार यहाँ भी (वेद उससे उत्पन्न हुए, आदि वाक्यों में भी ) सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में सिद्धि की जा सकती है।
विशेष-पाणिनि के 'तेन प्रोक्तम्' इस अर्थाश-विधायक सूत्र से विभिन्न प्रत्ययों को लगाकर उक्त यौगिक शब्दों की सिद्धि होती है-कठेन प्रोक्तमधीयते कठाः । कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापाः । तित्तिरिणा प्रोक्तमधीयते तैत्तिरीयाः । यद्यपि कठादि ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा की रचना नहीं की, फिर भी वे एक-एक अध्ययन-सम्प्रदाय के प्रवतक के रूप में शाखाओं में विख्यात हैं । जैसे कठादि के आधार पर शाखाओं में समाख्या ( यौगिक शब्द ) बनती है, वैसे ही ईश्वर में सर्वज्ञत्व का निरूपण करते हैं । वास्तव में इसका अर्थ-निर्माण करना नहीं है, बल्कि अपनी या दूसरे की कृति को अध्यापन के द्वारा प्रकाश में लाना ही प्रवचन है। इस प्रकार कठादि नाम ( समाख्या ) अपनी मुख्य-वृत्ति के ही साथ विराजमान हैं। अब शब्द को अनित्य माननेवाले नैयायिकों पर दण्ड-प्रहार करने जा रहे हैं।
(९. शब्दानित्यत्व का खण्डन ) न चानुमानबलाच्छब्दस्यानित्यत्वसिद्धिः। प्रत्यभिज्ञाविरोधात् । न चासत्यप्येकत्वे सामान्यनिबन्धनं तदिति साम्प्रतम् । सामान्यनिबन्धनत्वमस्य बलवद्वाधकोपनिपातादास्थीयते क्वचिद् व्यभिचारदर्शनाद्वा। तत्र क्वचिद् व्यभिचारदर्शने तदुत्प्रेक्षायामुक्तं स्वतः प्रामाण्यवादिभिः
७. उत्प्रेक्षेत हि यो मोहादज्ञातमपि बाधनम् ।
स सर्वव्यवहारेषु संशयात्मा विनश्यति ॥ इति । अनुमान के बल से आप शब्द को अनित्य सिद्ध नहीं कर सकते। ऐसा करने से प्रत्यभिज्ञा का विरोध होगा। (ऊपर देखें, अनु० ७ क )। यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है कि [ 'यह वही गकार है'-इस प्रत्यभिज्ञा में ] यद्यपि वर्णों की एकता नहीं है, पर वे वर्णो के तादात्म्य के कारण एक समान जैसा लगते हैं, [ उनमें गत्व-जाति है। ] 'वों का एक समान लगना' आप क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? क्या दृढतर से प्रमाण वर्णव्यक्तियों (Individual Letters) में भेद पड़ने के कारण बाधा से डरते हैं या कहीं पर व्यभिचार (नियम का उल्लंघन ) होने से डरते हैं ? [ यह वही है, ऐसी प्रत्यभिज्ञा तभी हो सकती है, जब पहले से देखी हुई और अब देखी गयी वस्तु में एकता हो-यह नियम है। कहींकहीं एकता न रहने पर प्रत्यभिज्ञा किसी तरह हो जाती है, जैसे कटे हुए केशों के पुनः