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सर्वदर्शनसंग्रहहै, हरि पढ़ता है-इस तरह के विभागों का प्रयोग क्यों करते हैं ? सोमशर्मा पढ़ता है देवदत्त नहीं-यह व्यवहार तो निराधार ही हो जायगा।]
यह प्रश्न भी करना नैयायिकों को शोभा नहीं देता। गकार के व्यक्ति की भिन्नता मानने के लिए जिस प्रकार कोई प्रमाण नहीं है उसी प्रकार गत्व आदि जाति के विषय में कल्पना करने का भी कोई आधार नहीं है। [ अभिप्राय है कि 'यह वही गकार है' इस तरह ग के व्यक्ति के विषय में जो प्रत्यभिज्ञा होती है उसे गत्वजाति से सम्बद्ध मानने का कोई प्रमाण नहीं । ] जैसे (नेयायिकों के सिद्धान्त के अनुसार ) गोत्व-जाति को नहीं जाननेवाले पुरुष को एक ही गोत्व-जाति विभिन्न देश, परिमाण या संस्थान (आकृति) की व्यक्तिगत उपाधियों ( Individual conditions ) के चलते विभिन्न रूपों में प्रतीति होती है कि यह ( गोत्व ) दूसरे स्थान का है, यहाँ छोटा है, यहां बड़ा है, यहाँ लम्बा है, यहाँ नाटा है आदि। [ कहने का अर्थ है कि गोत्व-जाति का वास्तविक रूप न जाननेवाले लोग एक ही गोत्व-जाति को व्यक्तियों की विलक्षणता देखकर विभिन्न प्रकार का समझते हैं इस स्थान का गोत्व उस स्थान के गोत्व से अलग है, यहाँ का गोल्व लम्बा है, बौना है आदि। इससे गोल्व में भेद नहीं पड़ता, यह तो नेयायिक भी मानते ही हैं। यही बात गकारादि व्यक्तियों के विषय में है। इसे देखें। ] उसी प्रकार गकारव्यक्ति को नहीं जाननेवाले पुरुष को व्यक्त करनेवाले साधनों ( व्यंजकों ) के भेद के कारण, गो-व्यक्ति एक होने पर भी, विभिन्न धर्मों से सम्बद्ध प्रतीत होता है।
विशेष-नाभि-प्रदेश से प्रयत्न के द्वारा प्रेरित वायु मुख में आती है तथा जिह्वा, अग्रभाग आदि का स्पर्श करती हुई कण्ठ आदि स्थानों में आघात करके ध्वनि उत्पन्न करती है। यह ध्वनि ही अपने अन्तर में विराजमान गकारादि वर्गों की अभिव्यक्ति करती है। यही ध्वनि नाद कहलाती है। इस व्यंजक ध्वनि में रहनेवाले अल्पत्व, महत्त्व आदि धर्मों के सम्बन्ध के कारण ग-व्यक्ति एक होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है। इसी कारण 'सोमशर्मा पढ़ते हैं' ऐसा विभाग किया जाता है। शब्द को नित्य मीमांसक भी मानते हैं। शब्द सदा से रहता है, किन्तु वायु की तरंगों से अभिव्यक्त किये जाने की अपेक्षा रखता है । देखिये, जैमिनिसूत्र ( १।११७ )।
एतेन विरुद्धधर्माध्यासाद् भेदसिद्धिरिति प्रत्युक्तम् । तत्र किं स्वाभाविको विरुद्धधर्माध्यासो भेवसाधकत्वेनाभिमतः प्रातीतिको वा ? प्रथमेऽसिद्धिः। अपरथा स्वाभाविकभेदाभ्युपगमे 'दशगकारानुवचारयच्चत्रः' इति प्रतिपत्तिः स्यान्न तु दशकृत्वो गकार इति।
इस प्रकार [ग-व्यक्तियों में ] विरोधी धर्मों ( जैसे अल्पत्व, महत्त्व ) का आरोपण होने से [ विभिन्न गकारों में ] भेद की सिद्धि होती हैं, यह प्रत्युत्तर दिया गया । अब प्रश्न है कि भेद की सिद्धि करने के लिए जो विरुद्ध धर्मों के मिथ्यारोपण (अध्यास) का