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जैमिनि-दर्शनम्
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विरोध ( बाध Preclusion ) होगा। यही कारण है कि [ माता की ] विवक्षा [ मुख्यार्थ प्रकाशन को है यह ] नहीं मानते [ और हमें दूसरे व्यंग्यार्थ के अन्वेषण में चलना पड़ता है ] । किन्तु वेद तो अपौरुषेय है अतः उसमें प्रतीत होनेवाला अर्थ ( वाच्यार्थ) क्यों नहीं विवक्षित होगा ? [ वाच्यार्थ ही वेद का विवक्षित अर्थ है । ] इस विवक्षित ( अभीष्ट Intended ) वेदार्थ में पुरुष को जहाँ-जहाँ सन्देह उत्पन्न होगा वह सारा-कासारा विचारशास्त्र का हो विषय हो जायगा । उसका निर्णय करना ही विचारशास्त्र का प्रयोजन है। [ फिर आप कैसे कहेंगे कि विचारशास्त्र का न विषय है न प्रयोजन ?]
इस तरह अध्यापन-विधि के द्वारा प्रयुक्त अध्ययन से जो अर्थ अवगत होता है वह विचार के योग्य है इसलिए विचार-शास्त्र विधिसम्मत है । अतः इसका आरम्भ करना चाहिए । यही सिद्धान्त का संग्रह हुआ । (राद्धान्त =सिद्धान्त । राध् + क्त= राद्ध = सिद्ध)
(७. वेदों को पौरुषेय माननेवाले पूर्वपक्ष का निरूपण ) स्यादेतत् । वेदस्य कथमपौरुषेयत्वमभिधीयते ? तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावात् । अथ मन्येथाः 'अपौरुषेया वेदाः, सम्प्रदायाविच्छेदे सत्यस्मर्यमाणकर्तृकत्वादात्मवत्' इति । तदेतन्मन्दम् । विशेषणासिद्धेः। पौरुषेयवेदवादिभिः प्रलये सम्प्रदायविच्छेदस्य कक्षीकरणात् । किं च किमिदमस्मर्यमाणकर्तृकत्वं नामाप्रमीयमाणकर्तृकत्वमस्मरणगोचरकर्तृकत्वं वा ? न प्रथमः कल्पः । परमेश्वरस्य कर्तुः प्रमितेरभ्युपगमात् ।
अच्छा, ऐसा होगा। वेद को अपौरुषेय आप लोग कैसे कहते हैं ? जब कि इसका प्रतिपादन करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं ? आप (सिद्धान्ती ) लोग कह सकते हैं
'वेद अपौरुषेय हैं, क्योंकि सम्प्रदाय ( Tradition, परम्परा ) अविच्छिन्न रहने पर भी इनके कर्ता का स्मरण नहीं किया जा सकता, जैसे आत्मा।' [ अभिप्राय यह है जहाँ ग्रन्थ के आदि, मध्य या अन्त में ग्रन्थकार ने कर्ता के रूप में अपने नाम का उल्लेख किया है, उसमें तो कोई विवाद ही नहीं-वह तो पौरुषेय है ही। जैसे—महाभाष्य, प्रदीप, रघुवंश, श्लोकवार्तिक आदि । जहाँ पर ग्रन्थकार से आरम्भ करके अविच्छिन्न सम्प्रदाय के द्वारा गुरुपरम्परा से कर्ता का स्मरण किया जाता है वहाँ भी विवाद नहीं होता' जैसेपाणिनि, पतंजलि आदि ऋषियों के नाम व्याकरण, योगादि सूत्रग्रन्थों के कर्ता के रूप में लिये जाते हैं । ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ में कहीं भी कर्ता के रूप में अपना नामोल्लेख नहीं किया तथा विच्छिन्न सम्प्रदाय होने के कारण कर्ता का स्मरण नहीं किया जा रहा है वहाँ पर पौरुषेयत्व में सन्देह हो सकता है। किन्तु जहाँ सम्प्रदाय अविच्छिन्न ( लगातार ) रहने पर भी कर्ता का स्मरण न करें तब तो स्मरणाभाव का कारण कर्ता का न होना ही है, इस तरह वेद को अपौरुषेय सिद्ध करते हैं।]