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जैमिनिमर्शनम्
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( Inclusion ) करना पड़ता है । जितनी वस्तु के बिना किसी के काम में हानि हो रही हो उतनी वस्तु का हो आक्षेप किया जाता है, अधिक का नहीं । अव्ययन का आक्षेप अनिवार्य था, अर्थावबोध के आक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
दूसरा विकल्प [ कि अध्यापनविधि केवल पाठ से सम्बद्ध है ] ठीक नहीं, क्योंकि जब वेदों का अध्ययन मात्र ही लक्ष्य है तब तो विचारशास्त्र का न कोई विषय ही सम्भव है
और न प्रयोजन हो । विचारशास्त्र का विषय वही हो सकता है जो ऊपर से प्रतीत होनेवाला किन्तु सन्दिग्ध हो ।
तथा सति यत्रार्थावगतिरेव नास्ति तत्र सन्देहस्य का कथा ? विचारफलस्य निर्णयस्य प्रत्याशा दूरत एव । तथा च यदसन्दिग्धमप्रयोजनं, न च तत्प्रेक्षावत्प्रतिपित्सागोचरः। यथा समनस्केन्द्रियसन्निकृष्टः स्पष्टालोकमध्यमध्यासीनो घट इति न्यायेन विषयप्रयोजनयोरसम्भवेन विचारशास्त्रमनारभ्यमिति पूर्वः पक्षः। __ ऐसा होने पर, जहाँ अर्थ का अवबोध ही नहीं होता वहाँ सन्देह का प्रश्न भी नहीं उठता । विचार का फल जो निर्णय के रूप में है उसकी प्रत्याशा तो और भी दूर है। इसके साथ-साथ, जिस वस्तु में कोई सन्देह नहीं हो या जिसका कोई प्रयोजन नहीं रहे, वैसी वस्तु को प्रतिपादित करने की इच्छा समीक्षकों में नहीं हुआ करती। [ जिस विषय का निर्णय पहले से हो उसका प्रतिपादन करना व्यर्थ है । सन्देह होने पर ही वस्तु प्रतिपाद्य होती है । सन्देह रहने पर भी यदि प्रतिपादन का कोई प्रयोजन न हो तो उसका प्रतिपादन व्यर्थ ही है । इस प्रकार सन्देह और प्रयोजन दोनों के रहने पर ही समीक्षकों में प्रतिपादनेच्छा जागृत होती है । एक के भी अभाव में इच्छा नहीं होगी, दोनों का अभाव रहने पर तो कहना ही क्या ? ] उदाहरण के लिए, मनःसंयुक्त इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध तथा स्पष्ट आलोक में अवस्थित घट [ प्रतिपादन का विषय नहीं बन सकता क्योंकि यह असन्दिग्ध तो है ही, इसके प्रतिपादन का कोई प्रयोजन भी नहीं। ] इस नियम से, चूंकि विचारशास्त्र के विषय और प्रयोजन दोनों ही सम्भव नहीं हैं, अतः इसका आरम्भ नहीं करना चाहिए। यह पूर्वपक्ष हुआ।
(६ ख. प्रभाकर-मत से सिद्धान्तपक्ष ) अध्यापनविधिनार्थावबोधो मा प्रयोजि। तथापि सागावेदाध्यायिनो गृहीतपदपदार्थसंगतिकस्य पुरुषस्य पौरुषेयेष्विव प्रबन्धेष्वाम्नायेऽप्यर्थावबोधः प्राप्नोत्येव । ननु यथा 'विषं भक्ष्व' इत्यत्र प्रतीयमानोप्यों न विवक्ष्यते। 'मास्य गहे भुक्थाः ' इति भोजनप्रतिषेधस्य मातृवाक्यतात्पर्यविषयत्वात् । तथाम्नायार्थस्याविवक्षायां विषयाधभावदोषः प्राचीनः प्रादुःव्यात् इति चेत्-मैवं वोचः । दृष्टान्तवार्टान्तिकयोवैषम्यसम्भवात् ।