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जैमिनि-दर्शनम्
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विशय का अर्थ है संशय ( संदेह )। यद्यपि सभी दर्शनों में अधिकरणों की सिद्धि हो सकती है परन्तु दोनों मीमांसाएं ( पूर्व और उत्तर ) इस दृष्टि से बहुत आगे हैं। उनमें भी जैमिनि की पूर्वमीमांसा के अधिकरण और भी प्रसिद्ध हैं, क्योंकि सूत्र भी अधिकरणों को दृष्टि में रखकर ही लिखे गये लगते हैं । मीमांसा के अधिकरणों का संकलन. भी जैमिनीयन्यायमाला आदि ग्रन्थों में हुआ है।
(३, भाट्टमत से अधिकरण का निरूपण ) तत्राचार्यमतानुसारेणाधिकरणं निरूप्यते । 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' इत्येतद्वाक्यं विषयः 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' ( जै० सू० १।१।२ ) इति आरभ्य 'अन्वाहार्ये च दर्शनात्' (जै० सू० १२।४।४७ ) इत्येतदन्तं जैमिनीयं धर्मशास्त्रमनारभ्यमारभ्यं वेति संदेहः । अध्ययनविधेरदृष्टार्थत्वदृष्टार्थत्वाभ्याम् ।
अब उनमें आचार्य ( कुमारिल भट्ट ) के मत से अधिकरण का निरूपण करें। स्वाध्याय अर्थात् वेद का अध्ययन करना चाहिए' यह वाक्य ही विषय है। 'प्रवृत्ति उत्पन्न करनेवाले वाक्यों से लक्षित वस्तु ही धर्म है' (जै० सू० १११।२ ) यहाँ से आरम्भ करके 'इसे अन्वाहार्य में देखने पर भी यही सिद्ध होता है' ( जै० सू० १२।४।४७ ) यहाँ तक जो जैमिनि का लिखा हुआ धर्मशास्त्र है, उसे आरंभ करें या नहीं—यही सन्देह है। कारण यह है कि अध्ययन-विधि ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) को कुछ मतों से दृष्टार्थ ( साक्षात्प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला ) और कुछ मतों से अदृष्टार्थ ( अदृष्ट प्रयोजन, जैसे स्वर्गप्राप्ति आदि प्रयोजनों की सिद्धि करनेवाला ) मानते हैं। [ 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' का दृष्ट प्रयोजन है अर्थज्ञान । यद्यपि आचार्य के द्वारा किये गये उच्चारण के अनुसार उसी तरह की आनुपूर्वी रखते हुए शिष्य को भी उच्चारण करना चाहिए। किन्तु अध्ययनविधि का तात्पर्य केवल यहीं तक नहीं है। अर्थज्ञान-रूपी साक्षात् प्रयोजन तक इसका तात्पर्य है । अर्थज्ञान विचार के बिना संभव ही नहीं। अतः जैमिनि के द्वारा प्रोक्त ( Taught ) यह विचार-शास्त्र विधि पर कृपा करके शुरू करना ही चाहिए । अध्ययन-विधि को दृष्टार्थ मानने पर मीमांसा-शास्त्र का आरंभ आवश्यक है। दूसरी ओर, यदि अध्ययन-विधि को अदृष्टार्थ मानें, यह कहें कि स्वाध्याय का तात्पर्य केवल स्वर्गादि की प्राप्ति पर्यन्त है अर्थज्ञान पर्यन्त नहीं, तो विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं । विचारशास्त्र से विधि पर कोई प्रभाव पड़ेगा ही नहीं तो मीमांसासूत्र का आरम्भ ही क्यों करें ? इसी से दो पक्ष हो जाते हैं और सन्देह उत्पन्न होता है।]
(३ क. पूर्वपक्ष-शास्त्रारम्भ ठीक नहीं) तत्रानारभ्यमिति पूर्वः पक्षः । अध्ययनविधरर्थावबोधलक्षण दृष्टफलकत्वानुपपत्तेः । अर्थावबोधार्थमध्ययनविधिरिति बदन् वावी.