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सर्वदर्शनसंग्रहे
प्रष्टव्यः-किमत्यन्तमप्राप्तमध्ययनं विधीयते किं वा पाक्षिकमवघातवन्नियम्यत इति ? ___ तो, पूर्वपक्ष यह हुआ कि मीमांसा-शास्त्र का आरम्भ ही नहीं करना चाहिए । अध्ययन-विधि से अर्थावबोध होता है, इस अदृष्ट फल की सिद्धि नहीं होती। जो वादी ऐसा कहते हैं कि अर्थावबोध के लिए अध्ययन-विधि है, तो उनसे पूछना चाहिए-क्या अध्ययन किसी भी दूसरे साधन में प्राप्त नहीं था, इसलिए विधान करते हैं (क्या अध्ययन-विधि अपूर्व-विधि है ) या दूसरे साधन से वैकल्पिक हो जाने के चलते, अवघात-विधि के समान, इसे नियम में बांधते हैं। ( क्या अध्ययन-विधि नियम है ?)
विशेष—पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि अध्ययनवाली विधि अपूर्व-विधि है या नियमविधि ? अपूर्व-विधि उसे कहते हैं, जिसमें किसी विधि ( Injunction ) का प्रयोजन किसी भी अन्य प्रमाण से प्राप्त न हो , अतः उस प्रयोजन के लिए विधि दी जाय। उदाहरण के लिए 'यजेत स्वर्गकामः'। याग से स्वर्ग-प्राप्ति होगी, इस प्रयोजन की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होगी, केवल इसी विधि से इसका ज्ञान हो सकता है, अतः इसे अपूर्व-विधि कहते हैं । जहाँ पर अनेक साधनों से क्रिया की सिद्धि हो सके, एक साधन प्राप्त हो, किन्तु दूसरे अप्राप्त-तो इन अप्राप्त कारणों का बोध करानेवाली विधि नियम-विधि ( Restrictive injunction ) कहलाती है। जैसे-व्रीहीनवहन्ति ( अवघात-विधि )। इस विधि से यह सूचित नहीं होता कि अवघात धान को तुषरहित करनेके लिए होता है, क्योंकि यह तो लोक में प्रसिद्ध ही है। किन्तु यहां पर नियम-विधि है कि अप्राप्त अंश की पूर्ति की जाती है । तुषरहित करना नाना उपायों से हो सकता है कोई धान को नाखूनों से छील सकता है, कोई चक्की में दल सकता है, कोई अवघात कर सकता है आदि । जब कोई व्यक्ति अवघात ( मूसल से छाँटना ) छोड़कर किसी दूसरे उपाय का ग्रहण करना चाहता है, तो अवघात की अप्राप्ति हो जाती है। इस विधि के द्वारा उसी अप्राप्त अवघात का नियमन करते हैं कि अन्य उपायों से नहीं, केवल अवघात के द्वारा ही धान का तुष छुड़ायें। पाक्षिक रूप से अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करनेवाली विधि नियम-विधि है । इसे कहा गया है
विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति ।
तत्र चान्यत्र च प्राप्त परिसंख्येति गीयते ॥ नियम-विधि में तो एक की अप्राप्ति और दूसरे की प्राप्ति रहने पर अप्राप्त वस्तु की पूर्ति की जाती है, परिसंख्या-विधि ( Exclusive specification ) में एक ही साथ दो की प्राप्ति रहती है और तब एक की निवृत्ति करते हैं जैसे 'पञ्च-पञ्चनखा भक्ष्याः ' । इसका अर्थ है, पांच पञ्चनखों के अतिरिक्त ('शशकः शल्लको गोधा खड्गी कूर्मोऽथ पञ्चमः' ) किसी दूसरे पंचनख जीव का भक्षण मना है। इस प्रकार यह निवृत्ति परिसंख्या द्वारा ही होती है।