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मिनि-पसनन्
४५७ जाय, उसे उपोद्धात कहते हैं।' [ इस प्रकार :कुमारिल भट्ट के मत से अधिकरण पर विचार हुआ ।].
(६. प्रभाकर के मत से उक्त अधिकरण का निरूपण ) इदमेवाधिकरणं गुरुमतमनुसृत्योपन्यस्यते। अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत, तमध्यापयोतेत्यत्राध्यापनं नियोगविषयः प्रतिभासते। नियोगश्च नियोज्यमपेक्षते । कश्चात्र नियोज्य इति चेत्-आचार्यककाम एव । 'सम्मानन-' ( पा० सू० १॥३॥३६ ) इत्यादिना पाणिन्यनुशासनेनाचार्यके गम्यमाने नयतेर्धातोरात्मनेपदस्य विधानात् । उपनयने यो नियोज्यः स एवाध्यापनेऽपि । तयोरेकप्रयोजनत्वात् । ___ अब इसी अधिकरण का निरूपण गुरु (प्रभाकर )-मत से किया जाता है । 'आठ वर्ष के ब्राह्मण के बालक का उपनयन कर दे तथा उसे पढ़ाये' ( आश्व० गृ० सू० १।१९।१ )-इस प्रकार अध्यापन ही नियोग ( विधि ) का विषय प्रतीत होता है। नियोग (विधि ) नियोज्य ( विधि के पात्र ) की अपेक्षा रखता है तो कौन नियोज्य होगा ? [ विधि किस के लिए है ? ]
[ उत्तर होगा कि ] जो व्यक्ति आचार्य के कर्म की कामना करता है उसके लिए ही विधि है। पाणिनि के सूत्र 'सम्माननोत्सजनाचार्यकरणज्ञानभृतिविगणनव्ययेषु नियः ( ११३॥३६ )' के द्वारा आचार्य के कर्म ( कारण ) का अर्थ प्रतीत होने पर नी-धातु से आत्मनेपद होने का विधान किया गया है । [ उपपूर्वक नी धातु का अर्थ है विधिपूर्वक अपने पास पहुंचाना । इस प्रापण क्रिया के द्वारा माणवक ( शिष्य ) में संस्कार उत्पत्र किया जाता है। यह फल चूंकि आचार्य को ( कर्ता होने के नाते ) नहीं मिलता, संस्काररूपी फल माणवक को ही मिलता है अतः 'स्वरितत्रितः कञभिप्राये क्रियाफले' ( पा०सू० ११३१७२ ) से आत्मनेपद नहीं होता । यही कारण है कि एक दूसरे सूत्र के द्वारा आचार्यकरण अर्थ में नी-धातु को आत्मनेपद सिद्ध किया गया है । आचार्यक = आचार्य का कर्म । वुञ् प्रत्यय ( पा० सू० ५।१।१३२ )।] ___ उपनयन में जो व्यक्ति नियोज्य है ( आचार्य ) वही व्यक्ति अध्यापन में भी नियोज्य बनता है, क्योंकि दोनों क्रियाओं का लक्ष्य (प्रयोजन ) एक ही है (= आचार्यत्व की प्राप्ति )।
विशेष-यहां प्रभाकर-गुरु के विषय में एक किंवदन्ती है कि ये गुरु कैसे हुए । इनके गुरु एक बार एक फक्किका के फेरे में थे-'अत्र तु नोक्तम् । तत्रापि नोक्तम् । अतः पौनरुक्त्यम् ।' जब दोनों जगह नहीं ही कहा गया है तब पुनरुक्ति कैसे हुई ? प्रभाकर के गुरु संशय में थे। प्रभाकर को स्फुरण हुआ कि पुस्तक में पदच्छेद की गड़बड़ी है। होना यह चाहिए-अत्र तुना उक्तम् ( यहाँ 'तु' शब्द के द्वारा कहा गया है ) ।