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सर्वदर्शनसंग्रहे
विचार - शास्त्र ( मीमांसा ) व्यर्थ है । [ उत्तर यह है कि यह कहना बिल्कुल ] असंगत है । बोध तो हो जायगा, किन्तु जहाँ तक निर्णय का प्रश्न है, वह विचार - शास्त्र के ही अधीन रहेगा । जैसे— 'सिक्त शर्करा ( कंकड़ों ) का उपधान ( स्थापन ) करता है' ( तै० ब्रा० ३|१२|५ ), यहाँ पर 'घी से सिक्त, तेल आदि से नहीं' इसका निर्णय व्याकरण, निगम ( वैदिक वाक्य का निरुक्त में उद्धरण, जिसमें शब्द की व्युत्पत्ति दी गयी है ) या निरुक्त से नहीं किया जा सकता । विचार - शास्त्र की सहायता लेने पर उस वाक्य के अवशिष्ट अंश -- 'बी हो तेज है' - इसके द्वारा अर्थ का निर्णय हो जाता है । [ किसी भी स्थिति में मीमांसा - शास्त्र की अवहेलना नहीं की जा सकती । ]
( ५. सिद्धान्तपक्ष का उपसंहार और संगति का निरूपण )
तस्माद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वं सिद्धम् । ते च वेदमधीत्य स्नायादिति शास्त्रं गुरुकुलनिवृत्तिपरं व्यवधानप्रतिबन्धकं बाध्येतेति मन्तव्यम् । 'स्नात्वा भुङ्क्ते' इतिवत् पूर्वापरीभावसमानकर्तृकत्वमात्रप्रतिपत्त्या अध्ययनसमा - वर्तनयोर्नेरन्तर्याप्रतिपत्तेः । तस्माद्विधिसामर्थ्यादेवाधिकरणसहस्रात्मकं पूर्वमीमांसाशास्त्रमारम्भणीयम् ।
इदं चाधिकरणं शास्त्रेणोपोद्घातत्वेन सम्बध्यते । तदाहचिन्तां प्रकृतिसिद्धयर्थामुपोद्घातं प्रचक्षते । इति ।
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इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि विचार - शास्त्र विधि-संगत है । ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि 'वेदमधीत्य स्नायात्' ( वेदाध्ययन करके समावर्तन संस्कारवाला स्नान करे ) - यह स्मृति गुरुकुल से शिष्य को हटने का उपदेश देती है तथा तनिक भी व्यवधान को रोकती है, अत: [ विचार शास्त्र का अध्ययन करने से ] उक्त स्मृति का उल्लंघन होगा । [ वास्तव में उक्त स्मृति से मीमांसाशास्त्र का कोई विरोध नहीं है । ] जिस प्रकार 'स्नात्वा भुङ्क्ते' ( नहाकर खाता है) इस वाक्य से केवल इतना ही मालूम होता है कि दोनों क्रियाओं में पूर्वापर का सम्बन्ध है और दोनों के कर्ता एक ही हैं ( यह नहीं ज्ञात होता कि दोनों के बीच कोई व्यवधान नहीं है--नहाकर पूजा-पाठ भी करसकता है ) उसी प्रकार अध्ययन और समावर्तन लगातार ( जल्दी से बिना व्यवधान के ) हो जायेंगे, यह प्रतीति नहीं होती । [ जिस वाक्य से जितना अर्थ लगे वहीं तक दौड़ लगानी चाहिए । पाणिनि अपने समान कर्तृकयोः पूर्वकाले' ( ३।४।२१ ) सूत्र में क्त्वा का विधान करते हुए यह नहीं कहते कि दोनों क्रियाओं के बीच क्त्वा के कारण व्यवधान रहेगा ही नहीं ।] इसलिए विधि की सामर्थ्य रहने के कारण ही एक हजार ( वस्तुत: ९१५ ) अधिकरणों के बने हुए पूर्वमीमांसा - शास्त्र का आरम्भ करना चाहिए ।
संगति - यह अधिकरण उपोद्घात ( भूमिका, सहायक ) के रूप में शास्त्र से सम्बद्ध है । यही कहा गया है— 'प्रकृत विषय की सिद्धि के लिए जो विचार किया