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सर्वदर्शनसंग्रहे
बन सका तब उसी वाक्य में स्थित 'स्वाध्याय' शब्द को भाव्य बनाने के सपने आने लगे । किन्तु फिर मुंह की खानी पड़ी । स्वाध्याय ( वेदराशि ) साध्य नहीं हो सकता । क्रिया के चार फल हैं - उत्पत्ति, प्राप्ति, विकार और संस्कार । कुम्भकार की क्रिया से घट की उत्पत्ति होती है । गमन-क्रिया से देशान्तर की प्राप्ति होती है । पाकक्रिया से तण्डुल में विकार होता है । वैज्ञानिक क्रियाओं से पेट्रोलियम के दोषों को दूर करके संस्कार होता है । प्रस्तुत प्रसंग में अध्ययन में प्रवृत्ति होने से वेदराशि की उत्पत्ति तो होती नहीं, क्योंकि वह नित्य है । उसकी प्राप्ति भी नहीं होगी, प्राप्ति उसी की होती है जो अप्राप्त है, किन्तु वेद तो विभु है, विकार भी नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानना अनित्यत्व को निमन्त्रण दे देना है । अध्ययनप्रवृत्ति के द्वारा वेद का संस्कार भी नहीं होता । संस्कार का अर्थ है किसी दूसरे कार्य की योग्यता प्राप्त करना । नित्य स्फोटरूप शब्द - ब्रह्म में कोई अपूर्व गुण नहीं दिया जा सकता । फलत: 'स्वाध्याय:' भी भाव्य नहीं हो सकता । तब भाव्य होगा कौन ? बिना भाव्य के अध्ययन - विधि निरर्थक होने जा रही है । इसलिए अर्थबोध को भाव्य मानेंगे । ]
क्योंकि वह सर्वत्र है । कहाँ नहीं है ? इसका
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( ४ क. अध्ययन-विधि का लक्ष्य अर्थबोध ही है )
तस्मात्सामर्थ्यप्राप्तोऽवबोधो भाव्यत्वेनावतिष्ठते । अर्थी समर्थो विद्वानधिक्रियत इति न्यायेन दर्शपूर्णमासादिविधयः स्वविषयावबोधमपेक्षमाणाः स्वार्थबोधे स्वाध्यायं विनियुञ्जते । अध्ययनविधिश्च लिखितपाठादिव्यावत्याऽध्ययन संस्कृतत्वं स्वाध्यायस्यावगमयति ।
इसलिए [ अध्ययन - विधि की ] सामर्थ्य से प्राप्त अर्थावबोध ही भाव्य रूप में अवस्थित हो सकता है । [ अर्थ यह निकला कि अध्ययन से अर्थबोध का सम्पादन करें । स्वर्गादि फल, विश्वजित - न्याय से अनुगृहीत होने पर भी अदृष्ट होने के कारण मान्य नहीं है । दृष्ट फल विद्यमान रहने पर भी अदृष्ट फल की कल्पना करना अनुचित है । यह अपूर्व विधि नहीं है, क्योंकि इसका दृष्टफल ( अर्थावबोध ) लोकसिद्ध है । अध्ययन के बाद अर्थ-ज्ञान का सम्पादन करना चाहिए - इस नियम में दृष्टफल न रहने से विवश होकर अवान्तर - अपूर्व ) अदृष्ट ) की कल्पना की जाती है । इस कल्पना का कारण है सभी यज्ञों से उत्पन्न होने वाला अपूर्व । अर्थज्ञान के बिना यज्ञ करना असम्भव है, इसलिए अर्थज्ञान के लिए श्रुति अध्ययन-नियम निर्धारित करती है । . ]
यह एक नियम है कि धनवान्, समर्थ तथा विद्वान् पुरुष यज्ञ करने के अधिकारी हैं ( देखिये, मीमांसा - सूत्र, ६।१ ) । इसलिए दर्श, पूर्णमास आदि विधियाँ अपने-अपने विषय के ज्ञान की अपेक्षा [ याजकों से ] करती हैं और वे अपने अर्थावबोध के लिए स्वाध्याय का विनियोग भी करती हैं । दूसरी ओर अध्ययन - विधि भी लिखित पाठ आदि [ अर्थाववोध के दूसरे साधनों ] को हटाकर यह बतलाती है कि स्वाध्याय का संस्कार ( अर्थज्ञान