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सर्वदर्शनसंग्रहे
धर्म विचाराय गुरुकुले वस्तव्यम् । तथा सत्यव्यवधानं बाध्येत । तस्माद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वाभावात्पाठमात्रेण स्वर्गसिद्धेः समावर्तनशास्त्राच्च धर्मविचारशास्त्रमनारम्भणीयमिति पूर्वपक्षसंक्षेपः ।
ऐसा होने पर ( अध्ययन विधि को अर्थज्ञान का बोधक न मानने पर ) ही 'वेद का अध्ययन करके स्नान ( गार्हस्थ्य का अधिकार प्राप्त करानेवाला स्नान, जिसे समावर्तन भी कहते हैं ) करे' इस स्मृति वाक्य का पालन होता है । इस विधि ( वेदमधीत्य स्नायात् ) से वेदाध्ययन तथा समावर्तन के बीच में कोई व्यवधान नहीं रहे, ऐसा मालूम पड़ता है । किन्तु यदि आपका मत मानें [ कि अध्ययन का तात्पर्य अर्थज्ञान भी है ] तब तो वेद का अध्ययन करने के बाद भी धर्म का विचार करने के लिए गुरुकुल में ही रहना आवश्यक हो जायगा तथा [ वेदाध्ययन और समावर्तन के बीच में ] व्यवधान नहीं पड़े, इसका उल्लंघन करना पड़ेगा । विचारशास्त्र ( मीमांसा - शास्त्र ) विधिसम्मत नहीं है, क्योंकि पाठ करने से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है ( अर्थज्ञान से नहीं ); इसके अतिरिक्त 'समावर्तन - शास्त्र' ( वेदमधीत्य स्नायात् ) के पालन के लिए भी धर्मविचार शास्त्र का आरम्भ नहीं करना चाहिए । यही पूर्वपक्ष का सारांश है ।
( ४. सिद्धान्तपक्ष --- शास्त्रारम्भ करना सर्वथा उचित है ) सिद्धान्तस्त्वन्यतः प्राप्तत्वादप्राप्तविधित्वं मास्तु । नियमविधित्वपक्षस्तु वज्रहस्तेनापि नापहस्तयितुं पार्यते । तथा हि - 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' ( तै० आ० २।१५ ) इति तव्यप्रत्ययः प्रेरणापरपर्यायां पुरुषप्रवृत्तिरूपार्थभावनाभाव्यामभिधाभावनां प्रत्याययति । सा हार्थभावना भाव्यमाकाङ्क्षति ।
अब सिद्धान्त ( Conclusion, Reply ) का निरूपण करते हैं-हम स्वीकार करते हैं कि दूसरे स्थानों में भी प्राप्त होने के कारण यह ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) अत्राप्त - विधि अर्थात् अपूर्व विधि नहीं है । ( अपूर्व विधि और कहीं से प्रमाणित नहीं होती है । अर्थज्ञान लिखित पाठ से भी सम्भव है अतः अन्यत्र भी प्राप्ति होती है । ] किन्तु इसे नियम विधि मानने का पक्ष तो वज्रहस्त ( इन्द्र ) के द्वारा भी मिटाया नहीं जा सकता । देखिये- 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' में विद्यमान तव्य-प्रत्यय उस अभिधा ( शाब्दी ) भावना की प्रतीति कराता 'जसका दूसरा नाम 'प्रेरणा' भी है तथा जो पुरुष-प्रवृत्ति के रूप में रहनेवाली आर्थी भावना के द्वारा साध्य है । किसी भाव्य ( साध्य, उद्देश्य ) की अपेक्षा रखती है । [ किसी
वह आर्थो भावना व्यापार को भावना
कहते हैं, जैसे किसी को प्रेरणा देना या मनुष्यों में प्रवृत्ति उत्पन्न करना । आख्यात
के
द्वारा भावना का अभिधान होता है, जैसे- 'यजेत'
(क्रिया) और लिंग दोनों अंशों में लिङ् है 'जुहोति' में आख्यात है
।
इस प्रकार तिङ् प्रत्यय के द्वारा ही भावना अभि
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