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सर्वदर्शनसंग्रहेwhich the instance is given ) में वैधर्म्य की सम्भावना है। केवल अवघात के द्वारा निष्पन्न चावलों के पीसे जाने पर जब पुरोडाश ( यज्ञ में प्रयुक्त रोटी की तरह का पदार्थ) आदि निर्मित होते हैं तभी अवान्तर ( सहायक ) अपूर्व के द्वारा दर्श ( अमावस्या का याग ) और पूर्णमास याग परम ( मुख्य ) अपूर्व ( अर्थात् स्वर्गादि ) उत्पन्न कर सकते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं। [ दर्शपूर्णमास आदि यागों से मुख्य अपूर्व अर्थात् पुण्य की उत्पति होती है । स्वर्गादि मुख्य पुण्य हैं । इनकी उत्पत्ति में सहायक पुण्य को अवान्तर अपूर्व कहते हैं । अवघातादि से इनकी उत्पत्ति होती है । अदृष्ट वस्तु की उत्पत्ति में कार्यकारण भाव शास्त्र से ही मालम होता है।] ___ अत: अवघात के नियम का कारण अपूर्व ( पुण्य ) ही है। [ यदि अवघात-रूपी नियम से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट की कल्पना नहीं होती या कल्पना करने पर भी यदि वह मुख्य अपूर्व की उत्पत्ति में सहायक नहीं बनता तो अवघातविधि का शास्त्र ही व्यर्थ हो जाता। धान को तुषरहित करने के लिए विधि की आवश्यकता नहीं थी। लोग धान से चावल निकालना भली-भांति जानते हैं । इसलिए अवघातनियम का एकमात्र कारण यही है कि दर्शपूर्णमास याग से उत्पन्न होनेवाले मुख्य अपूर्व की सिद्धि इससे होती है । ]
प्रस्तुत विधि में, लिखित पाठ से भी अर्थबोध हो सकता है और अध्ययन से भी,अतः अर्थबोध के बाद जो क्रतु ( यज्ञ ) का अनुष्ठान किया जायगा, उसमें नियम-हेतु रहेगा ही नहीं । [ अवघात-विधि और अध्ययन-विधि में समानता स्थापित नहीं की जा सकती। अवघात-विधि कम-से-कम अपूर्व का हेतु है, परन्तु अध्ययन-विधि अपूर्व का हेतु नहीं । ऐसा नहीं कहा जा सकता कि 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' की विधि अर्थज्ञान ( फल ) के उद्देश्य से दो गई है, क्योंकि अध्ययन के बिना भी केवल लिखित पाठ से अर्थज्ञान हो सकता है । जब अर्थज्ञान हो जायगा तब यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान करना सम्भव ही है । जेसे अवघातनियम से उत्पन्न होनेवाले अवान्तरापूर्व को अस्वीकार करने पर मुख्यापूर्व की उत्पत्ति नहीं होती अतः मुख्यापूर्व ही अवान्तर अपूर्व का हेतु है, वह बात अध्ययन-विधि के साथ नहीं । अर्थ के ज्ञान के लिए अध्ययन के नियम से उत्पन्न अवान्तर अपूर्व स्वीकार कर लेने में कोई हेतु दिखलाई नहीं पड़ता। ] अतः अध्ययन-विधि को नियमविधि नहीं मान सकते।]
तहि श्रूयमाणस्य विधेः का गतिरिति चेत्-स्वर्गफलकोऽक्षरग्रहणमात्रविधिरिति भवान्परितुष्यतु। विश्वजिन्न्यायेनाश्रुतस्यापि स्वर्गस्य कल्पयितुं शक्यत्वात् । यथा 'स स्वर्गः सर्वान्प्रत्यविशिष्टत्वात्' (जै० सू० ४।३।१५) इति विश्वजिति अश्रुतमप्यधिकारिणं सम्पादयता, तद्विशेषणं स्वर्गः फलं युक्त्या निरगायि तद्वदध्ययनेऽप्यस्तु । तदुक्तम्
१. विनापि विधिना दृष्टलाभान्न हि तदर्थता । कल्प्यस्तु विधिसामर्थ्यात्स्वर्गो विश्वजिवादिवत् ॥