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जैमिनि-दर्शनम्
४४५ ५८), सामों का ऊह ( द्वितीय पाद ६० ), मन्त्रों का ऊह ( तृतीय पाद ४३ ) तथा अन्त में ऊह के प्रसंग में उठने वाले प्रश्नों पर विचार किया गया है ( चतुर्थ पाद ६० )।
दसवें अध्याय ( आठ पाद ) में पहले बाध ( निषेध ) के कारणस्वरूप द्वारों (कारणों) के लोप का वर्णन हुआ है ( प्रथम पाद ५८) [ जहाँ वेदि-निष्पादनरूपी मुख्य कर्म ( द्वार ) का ही अभाव है, वहां वेदि-निष्पादन कर्म में सहायक उद्धनन आदि अंगकार्यों का बाध ( निषेध ) हो ही जायगा। जहाँ धान्य को तुषरहित करना ही नहीं है, वहाँ अवहनन का निषेध हो जायगा । ] तब उसी द्वारलोप का विस्तार बहुत से उदाहरणों के द्वारा किया गया है (द्वितीय पाद ७४ )। इसके बाद कार्य की एकता को बाध का कारण बतलाया है (तृतीय पाद ७५ ) [ जैसे प्रकृति ( Sample ) याग में गो, अश्व आदि की दक्षिणा का कार्य ऋत्विक्परिग्रह माना गया है, विकृति ( Deviating from the sample ) याग में उसी कार्य के लिए धेनु की दक्षिणा कही गयी है । इस प्रकार 'प्रकृतिवत्' शब्द के द्वारा जहाँ अतिदेश या स्थानान्तरण किया गया है, उससे प्राप्त होने वाली गो, अश्व आदि की दक्षिणा का निषेध है । ] उसके बाद बाध के कारणों के न होने पर समुच्चय (चतुर्थ पाद ५९), बाध का प्रसंग उठने पर ग्रहादि का विचार ( पंचम पाद ८ ), बाध के प्रसंग में ही सामविचार ( षष्ठ पाद ८०), इसी प्रसंग में विभिन्न सामान्य प्रश्नों पर विचार ( सप्तम पाद ७३ ) तथा अन्त में बाध करने वाले नवर्थ का विचार किया गया है ( अष्टम पाद ७०)। [स्मरणीय है कि परिमाण की दृष्टि से दशमाध्याय सभी अध्यायों से बड़ा है।] ___ ग्यारहवें अध्याय में तन्त्र का उपोद्धात ( प्रथम पाद ७१ ), तन्त्र और आवाप (द्वितीय पाद ६६), तन्त्र का विस्तार (तृतीय पाद ५४ ) तथा आवाप के विस्तार (चतुर्थ पाद ५६ ) पर विचार हुआ है । [ अनेक लक्ष्यों का ध्यान रखते हुए एक ही साथ अनुष्ठान करना तन्त्र है। एक ही काम करें और बहुतों को लाभ हो, जैसे बहुत लोगों के बीच स्थापित दीपक । लेकिन जो आवृत्ति (दुहराने ) पर बहुतों का उपकार करे वह आवाप है, जैसे बहुत लोगों का भोजन जो पारी-पारी से सम्भव है। जब दूसरे के उद्देश्य से दूसरी वस्तुओं का भी एक ही साथ अनुष्ठान करें तो उसे प्रसंग कहते हैं।]
बारहवें अध्याय में प्रसंग ( एक मुख्य उद्देश्य से किया जाने पर भी दूसरे का प्रसंगतः उल्लेख ) का विचार (प्रथम पाद ४६ ), तन्त्रियों ( साधारण धर्मों से युक्त) का निर्णय (द्वितीय पाद ३७ ), समुच्चय (तृतीय पाद ३८ ) तथा विकल्प (चतुर्थ पाद्र ४७ ) का विचार किया गया है।
विशेष-आस्तिक दर्शन की व्याख्या से माधवाचार्य की एक प्रवृत्ति देखने में आती है कि उन्होंने सूत्र-ग्रन्थों की विषय-वस्तु की सूची दे दी है। जिन दर्शनों में ( जेसे सांख्य ) वे ऐसा नहीं कर सके उनके सूत्र-अन्य उनके समक्ष उपलब्ध नहीं थे या थे तो प्रामाणिक