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जैमिनि-वर्शनम्
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विनियोग समझ में आता है । यौगिक शब्द के द्वारा विलम्ब की सम्भावना है। क्रम से. अधिक प्रबल प्रकरण है क्योंकि आकांक्षा का श्रवण होने से अर्थबोध शीघ्र होता है । वाक्य में आकांक्षा से भी अधिक प्रबलता है, क्योंकि अंग और प्रधान का एक साथ उसमें उच्चारण ही होता है । वाक्य की अपेक्षा लिंग में अर्थबोध की अधिक शक्ति है और अन्त में श्रुति तो सर्वोच्च है ही। जहाँ विनियोग के लिए साक्षात् श्रुति नहीं मिलती वहीं पर अन्य प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है । ( विशेष विवरण के लिए अर्थ-संग्रह या मीमांसान्यायप्रकाश देखें।)
चतुर्थे प्रधानप्रयोजकत्वाप्रधानप्रयोजकत्वजुहूपर्णतादिफलराजसूयगतजघन्याङ्गाक्षबूतादिचिन्ता । पञ्चमे श्रुत्यादिक्रम-तद्विशेषवृद्धयवर्धनप्राबल्यदौर्बल्यचिन्ता । षष्ठेऽधिकारितद्धर्मद्रव्यप्रतिनिध्यर्थलोपनप्रायश्चित्त-सत्रदेयवह्निविचारः । सप्तमे प्रत्यक्षवचनातिदेशशेषनामलिङ्गातिदेशविचारः।
चौथे अध्याय में प्रधान कर्मों की प्रयोजकता ( जैसे प्रधान कर्म आमिक्षा दध्यानयन-रूपी दूसरे कर्म का प्रयोजक है ), अप्रधान कर्मों की प्रयोजकता ( जैसे वत्सापाकरण कर्म शाखाच्छेद का प्रयोजक है ), पर्ण अर्थात् पलाश की बनी हुई जुह आदि के फल तथा राजसूय-याग (प्रधान ) के अन्तर्गत आनेवाले अप्रधान ( जघन्य ) अंगों जैसे अक्ष-बूत ( अक्षेर्दीव्यति ) आदि का विचार हुआ है। [ उक्त चारों प्रश्नों का विचार इसके चार पादों ( ४८+३१ + ४१ + ४१ ) में हुआ है जो स्पष्ट है।]
पाँचवें अध्याय में श्रुति आदि का क्रम, उनके विभिन्न भागों का क्रम, कर्मों की वृद्धि और अवृद्धि तथा श्रुति आदि की प्रबलता एवं दुर्बलता का विचार किया गया है। [ इसके प्रथम पाद ( ३५ ) में श्रुति, अर्थ, पठनादि के क्रम का निरूपण हुआ है। द्वितीय पाद ( २३ ) में क्रम के विशिष्ट भागों का वर्णन हुआ है, जैसे अनेक पशुओं के होने पर
१. जिस प्रकार विनियोग-विधि के छह प्रमाण हैं उसी प्रकार प्रयोगविधि के भी छह प्रमाण हैं-श्रुति, अर्थ, पाठ, स्थान, मुख्य तथा प्रवृत्ति ये क्रम ( Order ) का बोध कराकर प्रयोग-विधि की सहायता करते हैं । वेदं कृत्वा वेदि करोति–में श्रुति से ही कर्मों की पूर्वापरता मालूम होती है । 'अग्निहोत्रं जुहोति यवागू पचति' में प्रयोजन या अर्थ के द्वारा क्रम मालूम होता है कि यवागू होमार्थक है, अत: उसका वाक्य पीछे रहने पर भी पहले वही काम होगा ( यवागूपाक)। इन दोनों क्रमों के न रहने पर पाठ का क्रम ही प्रामाणिक होता है जिस क्रम से वेद में पाठ है उसी क्रम से काम करना है। देश-काल के अनुसार जो जहाँ उपस्थित है वह पहले करें, दूसरा पीछे ( यह स्थान-क्रम है)। प्रधान के क्रम से अंगों को रखना मुख्य-क्रम है । जिस क्रम से आदित्यादि प्रधान देवताओं की पूजा हो उसी क्रम से उनके अधिदेवताओं की पूजा करें। प्रवृत्ति-क्रम वह है जिसमें एक स्थान पर जैसा हुआ उसी क्रम से दूसरी जगह भी होगा-ऐसा विचार रहे।