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जैमिनि-दर्शनम्
वेदोक्तकर्मसरणिः स तु यागरूपो विध्यर्थवादयुगलं परिलम्बमानः ।
धर्मो भवेत्किल ततो जननान्तरेषु
कर्मैव सर्वमिति जैमिनये नमोऽस्तु ।। - ऋषिः ( १. मीमांसा - सूत्र की विषय-वस्तु )
नन धर्मानुष्ठानवशादभिमतधर्मसिद्धिरिति जेगीयते भवता । तत्र धर्मः किलक्षणक: किप्रमाणक इति चेत्-उच्यते । श्रूयतामवधानेन । अस्य प्रश्नस्य प्रतिवचनं प्राच्यां मीमांसायां प्रादशि जैमिनिना मुनिना । सा हि मीमांसा द्वादशलक्षणी ।
आप लोग ( मीमांसक ) बार-बार यही कहते हैं कि धर्म ( वेदविहित कर्म ) का अनुष्ठान करने से अभीष्ट धर्म की प्राप्ति होती है । हम पूछते हैं कि उस धर्म का क्या लक्षण है, उसके लिए प्रमाण क्या है ? हम इसे बतलाते हैं, ध्यान देकर सुनिये । इस प्रश्न का उत्तर जेमिनि मुनि ने अपनी पूर्व-मीमांसा में अच्छी तरह दिखाया है । उस पूर्व मीमांसा में बारह अध्याय हैं । [ लक्षण = अध्याय । मीमांसा का विषय ही धर्म है । ]
तत्र प्रथमेऽध्याये विध्यर्थवादमन्त्रस्मृतिनामधेयार्थकस्य शब्दराशेः प्रामाण्यम् । द्वितीये उपोद्घातकर्म भेदप्रमाणापवादप्रयोग भेदरूपोऽर्थः । तृतीये श्रुतिलिङ्गवाक्यादिविरोधप्रतिपत्ति कर्मानारभ्याधी तबहुप्र धानोपकारकप्रयाजादियाजमानचिन्तनम् ।
उसमें पहले अध्याय में विधि, अर्थवाद, मंत्र, स्मृति और नामधेय के अर्थ में जो शब्दराशि है - उसी की प्रामाणिकता बतलाई गई है । [ इसके प्रथम पाद ( ३२ सूत्र ) में विधि का प्रामाण्य, द्वितीय पाद ( ५३ सूत्र ) में अर्थवाद और मन्त्रों का प्रामाण्य, तृतीयपाद ( ३५ सूत्र ) में मनु आदि स्मृतियों का प्रामाण्य तथा चतुर्थपाद ( ३० सूत्र ) में नाम ( Names ) की प्रामाणिकता पर विचार किया गया है । ]
दूसरे अध्याय में उपोद्घात, कर्मभेद, कर्मभेद के प्रामाण्य का अपवाद तथा प्रयोगों में भेद - इन विषयों का प्रतिपादन हुआ है । [ प्रथम पाद ( ४९ ) में कर्मभेद का वर्णन करने के लिए उपोद्घात दिया गया है जिसमें अपूर्व का बोध कराने के लिए आख्यात को उपयुक्त माना गया है, धर्म का वर्णन सर्वोत्तम भाषा में हुई है । द्वितीय पाद (२९) में
ही तीनों वेदों में है जिनकी रचना धातुभेद, पुनरुक्ति आदि के कारण