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सर्वदर्शनसंग्रहे
नित्य है इसलिए [ वह अपने आप में प्रमाण है, आगम से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है । आगम की प्रामाणिकता ईश्वर पर निर्भर करती है परन्तु ईश्वर की प्रामाणिकता आगम पर निर्भर नहीं करती । आगम अनित्य है, ईश्वर नित्य — दोनों में अन्योन्याश्रय कैसा ? ]
ज्ञान के विषय में दोष नहीं उठता, क्योंकि यद्यपि परमेश्वर का ज्ञान आगम पर निर्भर करता है पर आगम को दूसरे स्थानों में जानते हैं । [ उत्पत्ति के लिए घट कुम्भकार पर निर्भर करता है पर ज्ञान के लिए तो प्रकाश आदि की ही अपेक्षा रहती है । वैसे ही उत्पत्ति के लिए आगम ईश्वर की अपेक्षा रखता है पर ज्ञान के लिए तो नहीं । आगम का ज्ञान ईश्वर नहीं कराता है - गुरु की परम्परा आदि से हम आगम को जान पाते हैं । ]
आगम [ के धर्मों ] की अनित्यता के ज्ञान में भी शंका नहीं हो सकती । आगम की अनित्यता का ज्ञान तीव्र आदि धर्मो ( तीव्र, तीक्ष्ण, दुःसह, भयंकर, कटु ) से युक्त होने से लोग सरलता से कर लेते हैं । [ अर्थयुक्त शब्द को आगम कहते हैं । अर्थ में तीक्ष्णत्व दुःसहत्व आदि दोष होते हैं, शब्द में कर्णकटुत्व आदि । ये धर्म अनित्यत्व के द्वारा व्याप्त होते हैं इसलिए आगम की अनित्यता सिद्ध करते हैं | अभ्यंकरजी ने बहुत सुन्दर दृष्टान्त दिया है कि जैसे जमीन पर नाव को ले जाने में बैलगाड़ी की जरूरत होती है और पानी में बैलगाड़ी ले जाने में नाव की, फिर भी आधार का भेद होने से अन्योन्याश्रय - दोष नहीं होता - उसी प्रकार यह मानने पर दोष नहीं होता कि आगम की उत्पत्ति के लिए ईश्वर की अपेक्षा है, ज्ञान के लिए नहीं तथा ईश्वर के ज्ञान के लिए आगम की अपेक्षा है उत्पत्ति के लिए नहीं । विषयभेद के कारण अन्योन्याश्रय दोष नहीं |
इस प्रकार निवृत्ति - परक धर्मों का अनुष्ठान करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है और इसी से अभिमत इष्टसिद्धि ( मोक्ष प्राप्ति ) होती है - यह सब स्पष्ट है ।
इस प्रकार सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में अक्षपाद - दर्शन समाप्त हुआ । इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामक्षपाददर्शनमवसितम् ।