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सर्वदर्शनसंग्रहेविकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि सभी कामों को प्राप्त किये हुए ईश्वर का इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त होना ठीक नहीं जंचता। इसीलिए दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं [ क्योंकि जो सभी कामों को पा चुका है उसे अनिष्ट ही नहीं रहेंगे, जिनके लिए वह प्रवृत्त होगा। यदि यह मानें कि दूसरों के लिए प्रवृत्ति होता है तो इसमें प्रवृत्ति को ही सिद्धि नहीं होती। दूसरों के लिए प्रवृत्ति होनेवाले व्यक्ति को समझदार ( बुद्धिमान् ) कौन कहेगा ? ___ अथ करुणया प्रवृत्त्युपत्तिरित्याचक्षीत कश्चित्, तं प्रत्याचक्षीत । तर्हि सर्वान् प्राणिनः सुखिन एव सृजेदीश्वरः। न दुःखशबलान् । करुणाविरोधात् । स्वार्थमनपेक्ष्य परदुःखप्रहाणेच्छा हि कारुण्यम्। तस्मादीश्वरस्य जगत्सर्जनं न युज्यते । तदुक्तं भट्टाचार्य:
६. प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।
जगच्च सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत् ॥ इति । अब यदि [ नैयायिक या ] कोई ऐसा कहे कि करुणा से ईश्वर की प्रवृत्ति मानी जा सकती है तो उसके प्रति हम (पूर्वपक्षी ) कहेंगे कि तब तो ईश्वर सभी प्राणियों को सुखी बनाकर पृथ्वी पर उत्पन्न करता । वह किसी को दुःख से नहीं रंगता, क्योंकि ऐसा करने से उसकी करुणा का विरोध होगा । स्वार्थ की अपेक्षा न रखते हुए दूसरों के दुःख का हरण करने की इच्छा ही करुणा कहलाती है । इसलिए ईश्वर के द्वारा संसार की सृष्टि मानना युक्तियुक्त नहीं है । इसे भट्टाचार्य ने कहा है-'प्रयोजन का बिना उद्देश्य रखे हुए मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता । वह ( ईश्वर ) यदि संसार की सृष्टि करता है तो कौन-सा काम नहीं करता ( सभी वस्तुओं का निर्माण वह करता है ) ?' [ ईश्वर सब कुछ करता है, किन्तु किसी प्रयोजन से नहीं । कोई प्रयोजन सिद्ध न होने के कारण ईश्वर की सिद्धि ही नहीं होती।
(१५. ईश्वर के द्वारा संसार-निर्माण सिद्धान्त ) अत्रोच्यते-नास्तिकशिरोमणे ! तावदाकषायिते चक्षुषो निमील्य परिभावयतु भवान् । करुणया प्रवृत्ति रस्त्येव । न च निसर्गतः सुखमयसर्गप्रसङ्गः। सृज्यप्राणिकृतदुष्कृतसुकृतपरिपाकविशेषाद् वैषम्योपपत्तेः। न च स्वातन्त्र्यमङ्गः शनीयः। स्वानं स्वव्यवधायकं न भवतीति न्यायेन प्रत्युत तनिर्वाहात् । 'एक एव रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे' (ते० सं० १८०६) इत्यादिरागमस्तत्र प्रमाणम् ।
अब हम उत्तर देते हैं-हे नास्तिकों के शिरोमणि ! पहले आप ईर्ष्या में डूबी हुई अपनी आँखों को बन्द कर लें तब विचार करें। करुणा से तो ईश्वर की प्रवृत्ति होती ही है। प्राकृतिक रूप से ही सुखी संसार की सृष्टि हो, ऐसा प्रसंग नहीं आ सकता; क्योंकि उत्पन्न