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अक्षपाद-दर्शनम्
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ऐसा तर्क दोनों ही दशाओं में खण्डित होता है, हम ईश्वर की सिद्धि करें या असिद्धि । यदि
आगम आदि प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिद्धि की जाय तो उन्हीं प्रमाणों से 'संसार का कर्ता ईश्वर है' यह भी मानना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में आपका अनुमान afuse हो जायगा और ईश्वर के कर्तृत्व का निषेध नहीं हो सकता । अब यदि आगमः दि को प्रमाण न मानकर प्रमाणाभास कहें और ईश्वर की असिद्धि करें तो भी आपके अनुमान में पक्ष की असिद्धि होगी ही । पक्ष ( Minor term ) स्वयं तो असत् है इसलिए किसी निषेध - वाक्य का यह उद्देश्य नहीं होगा | तुलनीय - न्यायकुसुमांजलि ( ३।२ ) । इस प्रकार दोनों स्थितियों में आपकी उक्ति खण्डित हो जाती है । ]
इसे ही उदयन ने कहा है- ' आगम आदि को प्रमाण मानने पर [ पूर्वोक्त अनुमान IT ] खण्डन हो जाने से [ ईश्वर का ] निषेध नहीं किया जा सकता । [ यदि आगमादि को केवल प्रमाण का ] आभास अर्थात् दोषपूर्ण प्रमाण मानें तो 'आश्रयासिद्ध' दोष उठ खड़ा हो जाता है ।' ( न्या० कु० ३।५ ) ।
इसके अलावे विशेष होने के कारण [ ईश्वर में कर्तृत्व का ] विरोध होगा ऐसी शंका' नहीं की जा सकती, क्योंकि [ ईश्वर के ज्ञात होने या अज्ञात होने इन दोनों विकल्पों का खण्डन हो जाता है । [ ईश्वर नित्य द्रव्य है तथा नैयायिकों के अनुसार विशेष लक्षणों से युक्त है - स्वलक्षण अर्थात् सभी पदार्थों से विलक्षण है । संसार में साधारण जीवों का कर्तृत्व देखकर उनके सादृश्य से सर्वतोविलक्षण एवं विशेष ईश्वर का कर्तृत्व मानने का क्या अधिकार है ? विशेष तो सामान्य से पृथक् ही रहेगा न ? नैयायिक कहते हैं कि ऐसी शंका आप लोग नहीं कर सकते । विशेष ( ईश्वर ) या तो ज्ञात रहेगा या अज्ञात । विशेष यदि ज्ञात है तो स्वभावतः सभी वस्तुओं से विलक्षण है, इसलिए अन्यत्र कहीं भी न देखे गये कर्तृत्व ( संसार का कर्तृत्व ) का साधक होगा । इसका कोई बाधक नहीं । यदि विशेष अज्ञात है तब तो उसके आधार पर किये गये अनुमान में विरोध की सम्भावना ही नहीं रहेगी। यदि विशेष ज्ञात है तो उसकी सत्ता स्पष्टतः मानी गई है, यदि अज्ञात है तो उसके विषय में तर्क व्यर्थ है । किसी तरह ईश्वर पर शंका सम्भव नहीं । ]
( १४. ईश्वर के द्वारा संसार निर्माण - पूर्वपक्ष )
स्यादेतत् । परमेश्वरस्य जगनिर्माण प्रवृत्तिः किमर्था ? स्वार्था परार्था वा ? आद्येऽपि, इष्टप्राप्त्यर्थाऽनिष्टपरिहारार्था वा ? नाद्यः । अवाप्तसकलकामस्य तदनुपपत्तेः । अत एव न द्वितीयः । द्वितीये प्रवृत्त्यनुपपत्तिः । कः खलुं परार्थं प्रवर्तमानं प्रेक्षावानित्याचक्षीत ?
अच्छा यह सब मान लिया गया । अब कहिये कि संसार का निर्माण करने में परमेश्वर की प्रवृत्ति किस लिए है अपने लिए या दूसरों के लिए ? यदि अपने लिए है तो फिर कहिये कि ईष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए या अनिष्ट वस्तु के परिहार के लिए ? पहला